लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी


मुख्य बातें – पिछली कक्षा में हमने लोकतंत्र की जानकारी प्राप्त की थी  अब हम यह देखेंगे कि सामाजिक विषमता , जातीय विषमता , सांप्रदायिक विविधता , लिंग भेद जैसे तत्व लोकतंत्र को  किस प्रकार प्रभावित करती है।
लोकतांत्रिक शासन – व्यवस्था में लोग ही शासन के केन्द्र बिन्दु होते हैं । 1961 में मुम्बई में मराठियों की संख्या 34 % थी जो 2001 में बढ़कर 57 % से ऊपर हो गयी । दक्षिण भारत से चेन्नई , बंगलूर और हैदराबाद में विकास के कारण दक्षिण भारत , मुम्बई आने वाले की संख्या कम हो गई है । लगभग 49 % प्रवासी ही उत्पादन कार्य में लगे हुए हैं । मुम्बई में भारत सरकार के कई उपक्रम लगे हुए हैं जिसमें सभी भारतीयों का पैसा लगा है ।
लेकिन पिछले दिनों कुछ राजनेताओं ने अपनी इच्छा पूर्ति के लिए मराठी मानुष की भावनाओं को भड़काया जिसके फलस्वरूप उत्तर हिन्दी भाषी क्षेत्र के लोगों को बेरहमी से पीटा तथा मुम्बई छोड़ने पर मजबूर कर दिया |
इसी प्रकार रेलवे भर्ती बोर्ड की परीक्षा में बिहारी छात्रों के साथ मारपीट की गई । अर्थात् मुंबई एवं मैसूर में हिंसात्मक कार्रवाई का आधार क्षेत्रीय विभाजन था|
इसी प्रकार बेल्जियम में सामाजिक विभाजन का आधार नस्ल और जाति नहीं बल्कि भाषा विभाजन का आधारिक है । श्रीलंका में सामाजिक विभाजन क्षेत्रीय और सामाजिक दोनों स्तर पर है । लेकिन इसके विपरीत भारत में संस्कृति के अंतर , भाषाओं के अंतर , अंगड़ी एवं पिछड़ी जातियों के बीच के तनाव के कारण सामाजिक विभाजन बहुत ही जटिल है ।
लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सामाजिक विभाजन के विभिन्न स्वरूप हैं । मुम्बई , दिल्ली आदि में बिहारी के साथ हिंसात्मक व्यवहार क्षेत्रीय भावना के आधार पर सामाजिक बँटवारे का उदाहरण है ।
कोई भी व्यक्ति जन्म के साथ ही किसी समुदाय का सदस्य बन जाता है । दलित परिवार में जन्म लेनेवाला उस समुदाय का स्वाभाविक सदस्य हो जाता है । लेकिन व्यक्ति अपनी इच्छा से धर्म परिवर्तन करता है । एक ही परिवार से कोई सदस्य शैव , शाक्त , वैष्णव धर्म में विश्वास करता है । फलतः उनके समुदाय अलग हो जाते हैं तथा समुदायों के हित साधना एक – दूसरे के विपरीत हो सकती है । अत : हम सभी की एक से ज्यादा पहचान होती है । सामाजिक विभाजन तुब होता है जुब कुछ सामाजिक अंतर दूसरी अनेक विभिन्नताओं से ऊपर और बड़े हो जाते हैं । जैसे सवर्णों और दलितों का अंतर एक सामाजिक विभाजन है क्योंकि संपूर्ण देश में आमतौर पर गरीब , वंचित एवं बेघर है और भेदभाव के शिकार हैं जबकि सवर्ण आमतौर पर सम्पन्न एवं सुविधायुक्त हैं । इसी प्रकार अमेरिका में श्वेत एवं अश्वेत का अंतर सामाजिक विभाजन है । कोई भी देश कितना भी बड़ा हो या छोटा , सामाजिक विभाजन और विभिन्नता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है । टकराव एवं सामंजस्य लोकतंत्र की नीतियों के निर्धारण का आधार होते हैं । पिछड़ों के लिए सरकारी नौकरियों एवं शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण का मुहिम कई वर्षों पहले शुरू हुआ । कई हिंसक तनावों एवं जहोजद के बाद यह व्यवस्था लागू हो पाई । सत्तर के दशक के पूर्व भारत की राजनीति में सवर्ण का वर्चस्व रहा । सत्तर से नब्बे तक के दशक के बीच सवर्ण और मध्यम पिछड़ी जातियों में सत्ता झूलती रही । नब्बे के दशक के उपरांत पिछड़ी जातियों का वर्चस्व रहा । अत : सरकार की नीतियों में दलित न्याय की पहचान सबके केन्द्र में रहीं । दुनिया के अधिकतर देशों में किसी – न – किसी किस्म का सामाजिक विभाजन है । लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के लिए सामाजिक विभाजनों की बात करना और विभिन्न समूहों से अलग – अलग वायदे करना बड़ी स्वाभाविक बात है ।
सामाजिक विभाजन की राजनीति तीन तत्वों पर निर्भर करती है-
( i ) प्रत्येक मनुष्य में राष्ट्रीय चेतना के अलावा उपराष्ट्रीय या स्थानीय चेतना भी होते हैं । जब भी कोई एक चेतना या स्थानीय चेतना भी होते हैं । जब भी कोई एक चेतना बाकी चेतनाओं पर उग्र होने लगती है तो समाज में असंतुलन पैदा हो जाता है । उदाहरण के लिए जबतक बंगाल बंगालियों का , तमिलनाडु तमिलों का , महाराष्ट्र मराठियों का , आसाम असमियों का , गुजरात गुजरातियों का , की भावना का दमन नहीं होगा तबतक भारत की अखंडता , एकता और सामंजस्य खतरे में रहेगा । अगर लोग अपने बहु – स्तरीय पहचान को राष्ट्रीय पहचान का हिस्सा मान लें तो कोई समस्या नहीं होती । यही वजह है कि हमारा देश अखंडता और एकता का प्रतीक है|
( ii ) किसी समुदाय या क्षेत्र विशेष की माँगों को राजनीति दलों की तरफ से उठाना । संविधान के दायरे में आनेवाली और दूसरे लेकिन वैसी मांगें जो समुदाय को नुकसान न पहुँचाने वाली मांगों को मान लेना आसान होता है के हितों को नुकसान पहुँचा सकती हैं , समाज को तोड़ सकती हैं ।
( iii ) सरकार की इन पिछड़ों , दलितों के प्रति न्याय की माँग को सरकार शुरू से ही खारिज करती रहती तो आज भारत बिखराव के कगार पर होता |
राजनीति में विभिन्न प्रकार के सामाजिक विभाजन ऐसे विभाजनों के बीच संतुलन पैदा करने का काम करती है । अत : कोई भी सामाजिक विभाजन हद से ज्यादा उग्र नहीं हो पाता तथा लोकतंत्र को मजबूत करता है ।
सामाजिक विभाजन की अभिव्यक्तियों में जाति की अवधारणा अति महत्वपूर्ण होती है । पेशे पुर आधारित सामुदायिक व्यवस्था जाति कहलाती है । इनकी पहचान एक अलग समुदाय के रूप में होती है । अपने समुदाय से हटकर दूसरे समुदाय में वैवाहिक संबंध बनाने वाले परिवार को समुदाय से निष्कासित कर दिया जाता है । जातिगत समुदाय का बहुत बड़ा वर्ग है – वर्ण – व्यवस्था । इसमें एक जाति के लोग सामाजिक पायदान में सबसे ऊपर होंगे तो किसी अन्य जाति समूह के लोग क्रमागत रूप से नीचे । जिसमें ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य तथा शूद्र क्रमानुसार व्यवस्था है । इस उपस्थित जातियों के साथ छुआछूत का व्यवहार होने लगा । ये जातियाँ सत्ता से पूर्णरूप से वंचित रहीं । परंतु पिछली शताब्दी में दलित जातियाँ भी जागृत हुई । ज्योतिबा फुले , महात्मा गाँधी , डॉ . भीमराव अंबेदकर जैसे राजनेताओं के मार्गदर्शन मुक्त समाज बनाने में सफल भी हुए । असमानता की एक प्रमुख वजह जाति होती है । क्योंकि जिस जाति की पहुँच संसाधनों पर अधिक होगी वे उतने अधिक सम्पन्न होंगे । लेकिन जाति तथा सत्ता में एकपक्षीय संबंध नहीं होते । करीब – करीब समान स्थिति वाले कई जातीय समुदायों को जोड़कर गठबंधन बनाया जाता है ।

संपूर्ण भारत की राजनीति आज पिछड़े दलित अल्पसंख्यकों तथा वंचित समुदाय के इर्द – गिर्द घूम रही है । अपनी सत्ता मजबूत करने के लिए राजनेता इनकी स्थिति सुधारने में लगे हैं जिनके फलस्वरूप भारत का सर्वांगीण विकास हो रहा है । यह राजनीति का सकारात्मक पहलू है । जाति के अतिरिक्त वर्ग के आधार पर भी सामाजिक विभाजन होता है । भारत में एक ही धर्म के कई विश्वास की परम्परा है । राजनीति में विभिन्न धमों के अच्छे विचारों , आदशों का समावेश हो तो देश का कल्याण ही होगा । हर व्यक्ति को एक धार्मिक समुदाय के तौर पर अपनी जरूरतों , हितों के लिए आवाज उठानी चाहिए लेकिन प्रहरी के तौर पर यह देखना चाहिए कि किसी धर्म – विशेष के साथ भेदभाव न हो ।
साम्प्रदायिकता के अनुसार एक धर्म – विशेष में आस्था रखने वाले एक ही समुदाय के सदस्यों के मौलिक हित एक जैसे होते हैं । इनके अनुसार दूसरे धर्म के लोगों की सोच और हित उनसे विपरीत होती है जिनसे तनाव की गुंजाइश बढ़ जाती है । हमारे संविधान निर्माताओं को सांप्रदायिकता के इस समस्या का आभास पहले से ही था । अतः भारत में शासन का धर्मनिरपेक्ष मॉडल चुना गया । धर्मनिरपेक्षता हमारे संविधान की बुनियाद है । लैंगिक असमानता सामाजिक असमानता का एक महत्वपूर्ण रूप है जो संरचना के हर क्षेत्र में दिखाई देता है । लड़के और लड़कियों के पालन – पोषण में अंतर परिवार में शुरू से ही होता है । महिलाओं के कार्यक्षेत्र को घर के अंदर ही सीमित कर दिया जाता है । महिलाओं में साक्षरता दर आज भी मात्र 54 % है जबकि 74 % पुरुषों में । अनेक हिस्सों में माँ – बाप को सिर्फ लड़के की चाह होती है । लड़की को जन्म देते ही मार देने की प्रवृत्ति होती है । शिक्षा में लड़कियों के इसी पिछड़ेपन के कारण अब भी ऊँचे तनख्वाह वाले और ऊँचे पदों पर पहुँचने वाली महिलाओं की संख्या बहुत ही कम है ।


प्रश्न और उत्तर (View Answer)


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