भारत : संसाधन एवं उपयोग


महत्वपूर्ण तथ्य – मानव जीवन के उपयोग में आने वाली सभी वस्तुएँ संसाधन हैं । इसके अंतर्गत भूमि , मृदा , जल एवं खनिज इत्यादि भौतिक संसाधन तथा वनस्पति , वन्य जीव , जलीय जीव इत्यादि जैविक संसाधन हैं । संसाधन का रूप कोई भी हो , तकनीक को सहायता से ही ये सभी जीवनोपयोगी बन जाते हैं तथा मानवीय आवयकताओं को भी पूर्ण करते हैं । जनसंख्या में वृद्धि तथा आवश्यकताओं में वृद्धि के साथ ही साथ मानव के ज्ञान में भी क्रमशः वृद्धि होती गई है जिसके कारण पर्यावरण में उपलब्ध पदार्थों को , मानव जीवन को सुखमय बनाने में सफल होता गया । प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता जिम्मरमैन ने कहा है कि ” संसाधन होते नहीं , बनते हैं । ” इन संसाधनों का निर्माता एवं उपयोगकर्ता मानव खुद है ।
मानव के आर्थिक विकास में सहायक संसाधनों के कई प्रकार हैं
( i ) उपलब्धता के अंतर्गत मानवकृत एवं प्रकृतिप्रदत्त संसाधन शामिल हैं ।
( ii ) पुनः प्राप्ति के अंतर्गत नवीकरणीय एवं गैर – नवीकरणीय संसाधन शामिल हैं ।
( iii ) स्रोत के अंतर्गत उन्हें जैविक एवं अजैविक संसाधन कहा जाता है ।
( iv ) स्वामित्व की दृष्टि से इनको निजी या व्यक्तिगत , सामुदायिक , राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संसाधनों में बाँया जाता है ।
( v ) विकास के आधार पर संसाधनों को संभावित , ज्ञात , भंडार एवं संचित कोष में बाँटा जाता है ।

संसाधनों के प्रकार एवं उदाहरण
1. मानवकृत संसाधन — भवन , कार्यालय , स्कूल , सड़क , रेलमार्ग , मंदिर , मस्जिद इत्यादि ।
2. प्रकृति प्रदत्त संसाधन — हवा , जल , भूमि , पर्वत , पठार , मैदान , तालाब , मृदा , झील , सागर इत्यादि ।
3. नवीकरणीय संसाधन जलीय ऊर्जा , पवन ऊर्जा , सौर ऊर्जा , भूतापीय ऊर्जा , पेड़ – पौधे इत्यादि ।
4. अनवीकरणीय संसाधन कोयला , खनिज तेल , धात्विक एवं अघात्विक खनिजें इत्यादि ।
5. जैविक संसाधन — जैसे पशु , पक्षी , जीव – जंतु , पेड़ – पौधे , मानव इत्यादि ।
6. अजैविक संसाधन — इसमें सभी निर्जीव पदार्थ चट्टान , खनिजें , भूमि , मृदा , पर्वत , पठार इत्यादि शामिल हैं ।
7. व्यक्तिगत संसाधन — व्यक्ति विशेष के अधिकार की वस्तुएँ एवं पदार्थ जैसे – खेत , मकान , साइकिल , मोटरसाइकिल , मोटरकार , तालाब , बाग – बगीचे शामिल हैं ।
8. सामूहिक संसाधन — इसमें पंचायत भूमि , सामुदायिक भवन , तालाब , मंदिर , मस्जिद , श्मशान भूमि , विद्यालय परिसर , पर्यटक स्थल इत्यादि शामिल हैं ।
9. राष्ट्रीय संसाधन किसी राष्ट्र के अंतर्गत पाए जानेवाले सभी संसाधन एवं तट से 19.2 किमी . दूर तक पाया जानेवाला संसाधन इसमें शामिल हैं ।
10. अंतर्राष्ट्रीय संसाधन – समुद्र तट से 200 किमी की दूरी के बाद पाया जानेवाला संसाधन अंतर्राष्ट्रीय संसाधन होता है । ऐसे संसाधनों का उपयोग अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की सहमति से किया जाता है । 11. संभावी संसाधन — जो संसाधन भविष्य में उपयोग किए जाने वाले हैं और जिनका उपयोग अभी तक नहीं हुआ है , संभावित संसाधन कहलाते हैं । 12. विकसित संसाधन — जिस संसाधन के विकास की तकनीक मालूम हो और अभी उपयोग किया जा रहा है , विकसित संसाधनों की श्रेणी में आते हैं ।
13. भंडार संसाधन — जिस संसाधन का तकनीक के अभाव में उपयोग नहीं हो पा रहा है । भंडार संसाधन कहलाते हैं ।
14. संचित कोष संसाधन — जिस संसाधन के उपयोग की तकनीक पता हो परंतु वर्तमान में उपयोग नहीं हो रहा है । सचित संसाधन हैं ।
विश्व के साथ ही साथ मारत में भी संसाधनों का वितरण काफी विषम है । यही नहीं , इनके अति उपयोग एवं विवेकहीन उपयोग से आज कई समस्याएँ सामने आती जा रही हैं । इसलिए संसाधन संरक्षण एवं नियोजन आवश्यक है । यद्यपि संसाधन नियोजन एक जटिल प्रक्रिया है फिर भी इसके कई स्तर हैं –
( 1 ) संसाधनों का सर्वेक्षण करना ।
( ii ) सर्वेक्षण के बाद उसकी गुणात्मक एवं मात्रात्मक आकलन कराना ।
( iii ) उपयुक्त तकनीक के आधार पर संसाधन प्राप्त करना ।
( iv ) प्राप्त संसाधन का राष्ट्रीय विकास के साथ संबंध स्थापित करना ।
संसाधन संरक्षण का संबंध अधिक समय तक अधिक लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिक से अधिक उपयोगी होने से है । इस पृथ्वी पर खनिज को सबसे कीमती संसाधन माना गया है । परंतु मानव द्वारा विकास कार्यों के लिए इन संसाधनों का अभूतपूर्व दोहन किया गया , जिससे उत्पन्न समस्याओं से आज विश्व चिंताग्रस्त है ।


संसाधन संरक्षण की दिशा में सर्वप्रथम 1968 ई . में क्लब ऑफ रोम ने इसकी वकालत की । 1968 ई- में एहरिलन की पुस्तक ‘ दी पोपुलेशन बम ‘ तथा 1974 ई . में शुमशेर की पुस्तक ‘ स्मॉल इज ब्यूटीफुल ‘ प्रकाशित हुई । इसी बीच विश्व पर्यावरण विकास आयोग का गठन संयुक्त राष्ट्रसंघ ने किया , जिसका अध्यक्ष नार्वे की तत्कालीन प्रधानमंत्री गरो हरलेष ब्रटेंलैंड को बनाया गया । ब्रटलैंड आयोग ने संसाधन – संरक्षण के संदर्भ में 1987 ई ० में अपनी रिपोर्ट ‘ हमारा साझा भविष्य ‘ नाम से आया । इस रिपोर्ट में सतत् विकास पर जोर दिया गया । इस संदर्भ में 1992 ई . में प्रथम पृथ्वी सम्मेलन का आयोजन ब्राजील के शहर रायो – डी – जेनेरों में किया गया । 1997 में न्यूयार्क और 2002 में जोहांसबर्ग में पृथ्वी सम्मेलन का आयोजन हुआ ।
इन सम्मेलनों में और विशेषकर प्रथम पृथ्वी सम्मेलन में सतत विकास की अवधारणा पर मंथन किया गया । वास्तव में मानवीय जीवन की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए सतत् विकास की जरूरत है । संसाधन के संदर्भ में सतत् विकास का तात्पर्य है भविष्य की पीढ़ी को ध्यान में रखते हुए वर्तमान में पर्यावरण को हानि पहुँचाए बिना विकास करना , जिससे मानवीय जीवन सतत् चलता रहे ।
विश्व स्तर पर आज संसाधनों का दोहन इस प्रकार किया जा रहा है कि संसाधनों के उपयोग को लेकर समाज संपन्न और विपन्न वर्गों में बँट चुका परिणाम यह है कि सम्पन्न वर्ग और सम्पन्न होता जा रहा है तथा विपन्न वर्ग और गरीब होता जा रहा है ।




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