मुख्य बातें — लोकतंत्र में राजनैतिक प्रक्रिया के मूल में सत्ता की साझेदारी का प्रयास होता है । इसके लिए लोकतांत्रिक संस्थाएँ सत्ता के विभाजन के विविध एवं व्यापक व्याख्यान करती हैं । हम सत्ता की सबसे प्रभावकारी कार्य – प्रणाली के रूप में संघीय शासन – प्रणाली का उपयोग करते हैं । हमारे संविधान निर्माताओं ने भारतीय समाज की विविधतापूर्ण संरचना एवं सामाजिक राजनैतिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को बनाए रखने के लिए संघीय व्यवस्था में एकात्मकता की भी व्यवस्था की है । जनजाति , धर्म , रंग , भाषा आदि पर आधारित मानव समूहों को उचित पहचान एवं सत्ता में साझेदारी नहीं मिलती तो उनके असंतोष एवं टकराव से सामाजिक विभाजन , राजनैतिक अस्थिरता , सांस्कृतिक ठहराव एवं आर्थिक गतिरोध उत्पन्न होते हैं । अतः विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच सत्ता का विभाजन उचित है क्योंकि इससे विभिन्न सामाजिक समूहों को अभिव्यक्ति एवं पहचान मिलती है । उनके हितों एवं जरूरतों का सम्मान होता है तथा विभिन्न सामाजिक समूहों को बीच टकराव की संभावना क्षीण हो जाती है । अत : साझेदारी की व्यवस्था राजनैतिक समाज की एकता , अखंडता एवं वैधता की पहली शर्त है । लोकतंत्र में सत्ता विभाजन शासन का मूल आधार होता है । जनता सारी शक्तियों का स्रोत एवं उपयोग करनेवाली होती है । सार्वजनिक फैसलों में सबकी भागीदारी होती है , अत : विभिन्न समूहों एवं विचारों को उचित सम्मान दिया जाता है । विभिन्न मानव समूहों की इच्छाओं , पसंद , हितों एवं जरूरतों में अंतर होता है तथा अपनी पहचान एवं पोषण के लिए प्रतिद्वंद्विता एवं संघर्ष चलता रहता है । विभिन्न समूहों को साथ रहने के लिए एक ऐसी राजनैतिक प्रणाली की जरूरत है जिसमें सभी स्थायी रूप से विजेता या पराजित नहीं हो । लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था ही एकमात्र शासन – व्यवस्था है जिसमें सभी को राजनैतिक शक्तियों में हिस्सेदारी या साझेदारी करने की व्यवस्था की जाती है ।
हमारे भारतीय संविधान में महिलाओं , अल्पसंख्यकों एवं कमजोर वर्गों के लिए भी विशेष व्यवस्था की गई है । राजनैतिक दल सचा में साझेदारी की सबसे जीवंत स्वरूप है । राजनैतिक दल लोगों के ऐसे संगठित समूह हैं जो चुनाव लड़ने और राजनैतिक सत्ता हासिल करने के उद्देश्य से काम करता है । सत्ता का सबसे अद्यतन रूप गठबंधन की राजनीतिक या गठबंधन की सरकारों में दिखता है जब विभिन्न विचारधाराओं , विभिन्न सामाजिक समूहों और विभिन्न क्षेत्रीय और स्थानीय हितों वाले राजनीतिक दल एक साथ एक समय में सरकार के स्तर पर सत्ता में साझेदारी करते हैं । लोकतंत्र में सरकार की सारी शक्ति किसी एक अंग में सीमित नहीं रहती है बल्कि सरकार के विभिन्न अंगों के बीच सत्ता का बँटवारा होता है । सरकार के तीनों आ विधायिका , कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच सत्ता का बँटवारा होता है और ये सभी अंग एक ही स्तर पर अपनी – अपनी शक्तियों का प्रयोग करके सत्ता में साझीदार बनते हैं , हरेक अंग एक – दूसरे पर नियंत्रण रखता है । इस तरह की व्यवस्था में पूरे देश के लिए सामान्य सरकार होती है तथा प्रांतीय और क्षेत्रीय स्तर पर अलग सरकारें होती हैं । दोनों के बीच सत्ता के स्पष्ट बँटवारे की व्यवस्था संविधान या लिखित दस्तावेज के द्वारा होती है । सत्ता के इस बटवारे को संघवाद के नाम से जाना जाता है । संघीय शासन व्यवस्था एकात्मक शासन व्यवस्था के विपरीत होती है जिसमें शासन का एक ही स्तर होता है , बाकी इकाइयाँ उसके अधीन कार्य करती हैं । संघीय शासन व्यवस्था के अंतर्गत विभिन्न राज्यों को समान अधिकार दिए जाते हैं लेकिन इस व्यवस्था में जरूरत के मुताबिक किसी राज्य को विशेष अधिकार दिए जाते हैं जैसा कि भारतीय संघ में जम्मू – कश्मीर , अरुणाचल प्रदेश , सिक्किम आदि राज्यों को विशेष अधिकार दिए जाते हैं । इस प्रकार संघीय शासन – व्यवस्था छोटे उद्देश्य को लेकर चलती है । क्षेत्रीय एवं अन्य विविधताओं का आदर करना और देश की एकता की सुरक्षा करना तथा उसे बदवा देना । भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम , 1947 ने भारत में स्वतत्रता के पश्चात् मौजूद 563 देशी रियासतों को यह अधिकार दिया कि वे भारत या पाकिस्तान में से किसी एक शासन में शामिल हो या स्वतंत्र रहें । अत : संघीय शासन – व्यवस्था आवश्यक थी ।
संघीय शासन – व्यवस्था के कार्यान्वयन के लिए संघीय इकाइयों में आपसी सहयोग , सम्मान और संयम की आवश्यकता होती है । राजनैतिक दलों की उपस्थिति , सत्ता में सांझेदारी के उनके प्रयत्न एवं व्यवहार से भी संघीय व्यवस्था की सफलता या असफलता निर्धारित होती है । अगर किसी इकाई की अनदेखी की जाए तो उनमें विरोध या असंतोष पनपता है जिसका अंत गृहयुद्ध तथा विघटन तक जा सकता है ।
भारतीय संविधान में किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया गया है । आबादी के 40 % लोगों की भाषा हिन्दी को राजभाषा का दर्जा नहीं दिया गया है तथा अन्य भाषाओं के प्रयोग , संरक्षण एवं संवर्द्धन के उपाय किये गये ।
भारतीय शासन व्यवस्था में एक और केन्द्र शक्तिशाली स्थिति में है तो दूसरी तरफ राज्यों की पहचान को भी मान्यता मिली हुई है । भारत में सत्ता के विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था सत्ता के तीसरे स्तर तक की गई है जिससे केन्द्र और राज्य से शक्तियाँ लेकर स्थानीय सरकारों को दी जाती है । स्थानीय संस्थाओं की मौजूदगी से शासन में जनता की भागीदारी के लिए व्यापक मंच एवं माहौल तैयार होता है जिससे लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होती हैं । लेकिन फिर भी राज्य सरकारों ने स्थानीय सरकारों को पर्याप्त अधिकार एवं संसाधन नहीं दिए हैं जिसकी वजह से स्थानीय शासन के कामकाज में दिक्कत होती है ।
हमारे प्रशासन में स्थानीय प्रशासन की मूलभूत इकाई ग्राम ही रही है । राष्ट्रीय स्तर पर पंचायती राज्य प्रणाली की विधिवत शुरुआत बलवंत राय मेहता श्रीमती की अनुशंसाओं के आधार पर 2 अक्टूबर 1959 को राजस्थान के नागौर जिले से हुई थी ।
बलवंत राय मेहता समिति ने पंचायत व्यवस्था के लिए त्रि – स्तरीय ढाँचा का सुझाव दिया ग्राम स्तर पर पंचायत , प्रखंड स्तर पर पंचायत समिति या क्षेत्रीय समिति तथा जिला स्तर पर जिला परिषद् । बिहार में ग्राम पंचायत ग्राम क्षेत्र की संस्थाओं में सबसे नीचे का स्तर है । राज्य सरकार 7000 की औसत आबादी को ग्राम पंचायत की स्थापना का कहां आधारवादी है प्रत्येक ग्राम पंचायत में अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति पिछड़े वर्ग के लिए उनकी जनसंख्या के आधार पर जगह आरक्षित करने का प्रावधान है |
ग्राम पंचायत के कार्यों ने पंचायत क्षेत्र का विकास , वार्षिक बजट तैयार करना , प्राकृतिक विपदा में सहायता करना इत्यादि होता है । ग्राम पंचायत की शक्तियों में करारोपण संचित निधी से अनुदान प्राप्त करना , संपत्ति अर्जित करने आदि प्रमुख हैं । ग्राम पंचायत की आय स्रोतों में कर , फोस और रेट , वित्तीय अनुदान इत्यादि प्रमुख हैं ।
ग्राम पंचायत के अंगों में ग्राम सभा , मुखिया , ग्राम रक्षादल दलपति तथा ग्राम कचहरी प्रमुख हैं । ग्राम सभा पंचायत की व्यवस्थापिका सभा है जिसमें गाँव के सभी वयस्क स्त्री – पुरुष शामिल ग्राम रक्षा दल गाँव की पुलिस व्यवस्था है जिसमें 18-30 वर्ष आयु के युवक शामिल हो सकते हैं । ग्राम कचहरी पंचायत की अदालत है । जिले को न्यायिक कार्यों का दायित्व दिया गया है । बिहार में ग्राम पंचायत की कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को एक – दूसरे से अलग रखा गया है ।
पंचायत समिति पंचायती राज व्यवस्था का मध्य स्तर है । बिहार में 5000 की आबादी पर पंचायत समिति के एक सदस्य को चुने जाने का प्रावधान है । प्रखंड विकास पदाधिकारी पंचायत समिति का पदेन सचिव होता है । वह प्रमुख के आदेश पर पंचायत समिति की बैठक बुलाता है ।
पंचायत समिति सभी ग्राम पंचायतों की वार्षिक योजनाओं पर विचार – विमर्श करती है तथा समेकित योजना को जिला परिषद् में प्रस्तुत करती है । पंचायत समिति अपना अधिकांश कार्य स्थायी समितियों द्वारा करती है । बिहार में जिला परिषद् पंचायती राज व्यवस्था का तीसरा स्तर है । 50,000 की आबादी पर जिला परिषद् का एक सदस्य चुना जाता है । जिला परिषद् के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत जिला की सभी पंचायत समितियाँ आती हैं । इसका कार्यकाल 5 वर्षों का होता है ।
बिहार के ग्राम पंचायत की तरह नगरीय शासन – व्यवस्था प्राचीन काल से प्रचलित रही है । भारतीय संसद ने 74 वाँ संशोधन 1992 में पारित करके नगरीय शासन – व्यवस्था को सांविधानिक मान्यता प्रदान की है ।
बिहार में नगरों के स्थानीय शासन के लिए तीन प्रकार की संस्थाएँ हैं- नगर पंचायत , नगर परिषद तथा नगर निगम । नगर पंचायत का गठन ऐसे स्थानों के लिए किया जाता है जो गाँव से शहर का रूप लेने लगते हैं । जिस शहर की जनसंख्या 12000 से 40000 के बीच हो वहाँ नगर पंचायत की स्थापना की जाती है ।
नगर पंचायत से बड़े शहरों में नगर परिषद् का गठन किया जाता है जहाँ की जनसंख्या 20000 से 30000 के बीच होती है । नगर परिषद् के अंग होते हैं नगर पार्षद , समितियाँ , अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष तथा कार्यपालक पदाधिकारी , नगर पार्षद के सदस्य पार्षद या कमिश्नर कहलाते हैं । इसकी सदस्य संख्या कम – से – कम 10 तथा अधिक से अधिक 40 होती है । इसका कार्यकाल 5 वर्षों का होता है ।
नगर परिषद के कार्यों को सुचारू रूप से चलाने के लिए समितियों का गठन किया जाता है । इन समितियों में 3 सदस्य हैं । ये समितियाँ अलग – अलग विषयों के लिए होती हैं । बिहार के प्रत्येक नगर परिषद में एक मुख्य पार्षद ( अध्यक्ष ) एवं उपमुख्य पार्षद ( उपाध्यक्ष ) होता है । इन दोनों का चुनाव नगर पार्षद के सदस्यों द्वारा होता है । इनका कार्यकाल 5 वर्षों का होता है । प्रत्येक नगर परिषद् में एक कार्यपालक पदाधिकारी होता है जिसकी नियुक्ति राज्य सरकार के द्वारा होती है । नगर परिषद् दो प्रकार के कार्य करती है – अनिवार्य एवं ऐच्छिक ।
अनिवार्य कार्य वे होते हैं जिन्हें नगर परिषद् को करना आवश्यक होता है तथा ऐच्छिक कार्य के होते हैं जिन्हें करना नगर परिषद् की इच्छा पर निर्भर करता है । नगर परिषद् की आय स्रोतों में कर , चुंगी तथा समय – समय पर मिलने वाला अनुदान प्रमुख है । नगर निगम की स्थापना बड़े – बड़े शहरों में की जाती है जहाँ की आबादी 3 लाख से अधिक होती है । भारत में सर्वप्रथम 1688 ई . में मद्रास ( चेन्नई ) नगर निगम की स्थापना गई । बिहार में सर्वप्रथम 1952 ई . में नगर निगम की स्थापना की गई है । नगर निगम में वार्डों की संख्या उस शहर की जनसंख्या पर निर्भर करती है । बिहार में नगर निगम में 50 % स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित किया गया है ।
नगर निगम को प्रमुख समितियों में निगम परिषद् , सशक्त स्थानीय समिति , परामर्शदायो समिति एवं नगर आयुक्त हैं ।
नगर निगम की प्रमुख कार्यों में स्थानीय आवश्यकता एवं सुख – सुविधा के लिए कार्य करना है । नगर निगम के आय के स्रोतों में विभिन्न प्रकार के कर , बिहार सरकार द्वारा दिया गया अनुदान , कर्ज इत्यादि हैं ।
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