लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ताधारी भी अपने ऊपर पड़ने वाले प्रभावों एवं दबावों से अलग नहीं हो सकते । लोकतंत्र एक ऐसी आदर्श व्यवस्था है जिसमें समाज में रहनेवाले लोगों के पारस्परिक हितों में टकराव चलता रहता है , अतः उसे परस्पर विरोधी विभिन्न भागों एवं दवावों के बीच संतुलन एवं सामंजस्य बनाना पड़ता है जिसकी वजह से लोकतंत्र की जड़ें काफी सुदृढ़ रहती हैं । पूरे विश्व में जन संघर्ष के माध्यम से ही लोकतंत्र का विकास हुआ है जब सत्ताधारी एवं सत्ता में हिस्सेदारी चाहनेवालों के बीच संघर्ष होता है तब वह लोकतंत्र की निर्णायक घड़ी होती है । इस संघर्ष का समाधान जनता की व्यापक साझेदारी से ही संभव हो पाता है । जनसंघर्ष में जनता की भागीदारी संगठित राजनीति के द्वारा ही संभव हो पाता है । अतः राजनीतिक दल , दबाव समूह और आंदोलनकारी समूह संगठित राजनीति का सकारात्मक माध्यम है |
लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी संघर्ष के पीछे अनेक संगठन होते हैं जो दो तरह से लोकतंत्र अपनी भूमिका निभाते हैं | राजनीति में प्रत्यक्ष भागीदारी के लिए राजनीतिक दलों का निर्माण होता है जो चुनाव में भगा लेते हैं जिससे सरकार का निर्माण होता हैं लेकिन समाज का प्रत्येक नागरिक लोकतंत्र में प्रत्यक्ष रुप से भागीदार हो या आवश्यक नहीं होता है | इसके अनेक कारण होते हैं जैसे राजनीतिक गतिविधियों में भाग नहीं लेने की इच्छा आवश्यक कौशल का अभाव इत्यादि | अतः समाज एवं देश के लोग संगठन बनाकर अपने अभाव या नजरिए को बढ़ावा देनेवाली गतिविधियाँ संचालित करते हैं । कभी – कभी बिना संगठन बनाए , ही अपनी मांगों के लिए एकजुट होने का निर्णय करते हैं जिसे जन संघर्ष और आंदोलन कहते हैं |
लोकतंत्र को मजबूत बनाने एवं उसे सुदृढ़ करने में जनसंघर्षों की भूमिका अहम होती है । 19 वीं शताब्दी के सातवें दशक के दौरान भारत में अनेक प्रकार के सामाजिक और जनप्रिय जनसंघर्षों की उत्पत्ति हुई । 1971 के आम चुनाव में श्रीमती इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में काँग्रेस की सरकार बनीं । लेकिन 1975 में उन्होंने देश के अगर आपातकाल की घोषणा कर जिस ढंग से लोकतंत्र का गला घोंटने का प्रयास किया , उसके विरोध में सरकार विरोधी जनसंघर्ष हुए तथा 1977 ई . में केन्द्र पर जनता पार्टी की सरकार की स्थापना हुई । अत : लोकतंत्र में जनसंघर्ष की अनदेखी महत्वपूर्ण भूमिका होती है । लोकतंत्र में यदि सरकार जनसाधारण के विचारों को फैसला लेते वक्त करती है तो ऐसे फैसलों के खिलाफ जनसंघर्ष होता है और सरकार पर दबाव बनाकर आम सहमति के फैसले लेने के लिए मजबूर किया है । जनसंघर्ष सरकार को तानाशाह होने एवं मनमाना निर्णय लेने से रोकते हैं । जनसंघर्ष से राजनीतिक संगठनों का विकास होता है ।
भारत के विभिन्न प्रदेशों एवं क्षेत्रों में अनेक आंदोलन हुए जिसने जनसंघर्ष का रास्ता अख्तियार किया तथा सरकार का ध्यान जन – समस्याओं तथा उनके निराकरण के लिए किया ।
चिपको आंदोलन का का प्रारंभ उत्तराखंड के से हुआ है । उनकी स्पष्ट मांग थी कि स्थानीय निवासियों का जल , जंगल तथा जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर एकमात्र नियंत्रण होना चाहिए । शराबखोरी की लत के विरुद्ध आवाज उठाकर ‘ चिपको आंदोलन ‘ का दायरा और भी विस्तृत कर दिया गया । अंततः इस आंदोलन को सफलता मिली और सरकार ने 15 वर्षों के लिए हमारे क्षेत्र में पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी|
1970 के दशक के प्रारंभ में भारतीय समाज के शिक्षितों ने विभिन्न मंचों से भारतीय संविधान में सन्निहित अपने अधिकारों एवं हकों के लिए आवाज उठाई । 1972 में दलित युवाओं का एक संगठन बना जिसे ” दलित मैंपर्स ” कहते हैं । ” रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया जैसे जिन राजनीतिक दलों का समर्थन दलित कर रहे थे वे चुनाव राजनीति में सफल नहीं हो रहे थे । 1989 ई . में सरकार द्वारा एक व्यापक कानून के अंतर्गत दलितों पर अत्याचार करनेवालों पर कठोर दंड का प्रावधान बना दिया गया|
‘ भारतीय किसान यूनियन ” ने गन्ने और गेहूँ के सरकारी खरीद मूल्य में बढ़ोतरी करने , कृषि से संबद्धित उत्पादों के अंतरराज्यीय आवाजाही पर लगी पाबंदियों को समाप्त करने , समुचित दर पर वारंटीसुदा बिजली आपूर्ति करने , किसानों के बकाये कर्ज माफ करने तथा किसानों के लिए • पेंशन योजना का प्रावधान करने की मांग की थी सरकार से अपनी मांगों को मनवाने के लिए भारतीय किसान यूनियन ने रैली धरना प्रदर्शन और जेल भरो अभियान जैसे कार्यक्रमों का सहारा लिया । वर्ष 1992 के सिंतबर – अक्टूबर माह में आंध्र प्रदेश की ग्रामीण महिलाएं शराब की बिक्री भारतीय किसान यूनियन ने रैली , घरना , प्रदर्शन और जेल भरो अभियान जैसे कार्यक्रमों का सहारा पर पाबंदी कर रही थी । ताड़ी विरोधी आंदोलन महिला आंदोलन का एक हिस्सा बन गया जिसका नारा था ” ताड़ी की बिक्री बंद करो ” , इसके व्यापक सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों को देश के सामने रखकर लोकतांत्रिक सरकार की कार्यशैली पर भी प्रश्न चिह्न लगाया । संविधान में 73 वें एवं 74 वें संशोधन अधिनियम द्वारा स्थानीय राजनीतिक निकायों में उन्हें प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ । 1980 के बाद आठवें दशक के प्रारंभ में मध्य भारत के नर्मदा घाटी के विकास परियोजनाओं के तहत गुजरात , महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश से गुजरनेवाली नर्मदा और उसकी सहायक नदियों पर 30 बड़े बाँध , 135 मंझोले बाँध तथा 300 छोटे बाँध बनाने का सरकार द्वारा प्रस्ताव रखा गया| 1988-89 के दौरान विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों ने स्वयं को संगठित करके नर्मदा आंदोलन के रूप में गठित कर एक जन संघर्ष का उदाहरण पेश किया ।
अत : 2003 में स्वीकृत राष्ट्रीय पुर्नवास नीति , नर्मदा बचाओं जैसे सामाजिक आदीलनों की उपलब्धि है । 1996 ई . में सूचना के अधिकार को लेकर दिल्ली में राष्ट्रीय समिति का गठन किया गया । 2002 में ” सूचना की स्वतंत्रता ” नामक एक विधेयक पारित , लेकिन अनेक त्रुटियों की वजह से उसे अमल में नहीं लाया जा सका । 2004 में सूचना के अधिकार संबंधी विधेयक को भारतीय संसद में उपस्थित किया गया जिसने जून , 2005 में राष्ट्रपति की स्वीकृति पाकर अधिनियम का रूप धारण किया गया । भारत के अलावा इसके पड़ोसी देशों में भी लोकतांत्रिक आंदोलन हुए हैं । नेपाल के लोकतांत्रिक आंदोलन का उद्देश्य राजा को अपने आदेशों को वापस लेने के लिए विवश करना था क्योंकि इन आदेशों की वजह से वहाँ का लोकतंत्र समाप्त हो गया था । बोलिवीया में लोगों ने पानी के निजीकरण के विरुद्ध एक सफल संघर्ष किया था ।
.1971 में बांग्लादेश के निर्माण के बाद 1975 ई . में शेख मुजीबुरहमान ने वहाँ के संविधान में संशोधन कर अवामी लीग पार्टी को छोड़कर शेष सभी पार्टियों की मान्यताएँ समाप्त कर दी । तब से लेकर दिसम्बर 2008 तक लोकतंत्र की बहाली के लिए वहाँ जनसंघर्ष चलते रहे तथा 29 दिसम्बर , 2008 को बांग्लादेश में आम चुनाव हुए । श्रीलंका भी एक गंभीर जातीय समस्या का शिकार बना हुआ है । वहाँ की तमिल आबादी की अलग राज्य की मांग के प्रति सरकार के उपेक्षापूर्ण रवैये ने जातीय संघर्ष का माँग प्रशस्त किया है ।
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