लोकतंत्र की चुनौतियाँ


भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है । लोकतंत्र सिद्धांत एवं व्यवहार में ” लोकतंत्र जनता का , जनता द्वारा तथा जनता के लिए ” शासन है । भारतवर्ष में लगभग 71 करोड़ मतदाता हैं । लेकिन आज भी दुनिया के एक चौथाई हिस्से में लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं है । लोकतंत्र एक प्रकार का शासन है जिसमें लोग अपनी मर्जी से साकार चुने , एक सामाजिक व्यवस्था है , विशेष प्रकार की मनोवृत्ति है तथा आर्थिक आदर्श है ।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में अलग – अलग देशों में अलग – अलग चुनौतियाँ भी हैं । उदाहरण के लिए अपने पड़ोसी देश नेपाल में राजतंत्र की समाप्ति के बाद लोकतंत्र की स्थापना तो की गई है लेकिन वहाँ के माओवादी नेता लोकतंत्र में अपनी इच्छा लादना चाह रहे हैं जो संभव नहीं है । लोकतांत्रिक व्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतों को सभी समारोहों , सभी लोगों तथा संस्थाओं में शामिल करना अपने – आप में चुनौती है । स्थानीय सरकारों को अधिक सम्यक बनाना , संघ की सभी इकाइयों के लिए संघ के सिद्धांतों को व्यावहारिक स्तर पर लागू करना , महिलाओं और अल्पसंख्यक समूहों को उचित भागीदारी सुनिश्चित करना ऐसी ही चुनौतियाँ हैं , हर लोकतांत्रिक व्यवस्था के सामने लोकतांत्रिक संस्थाओं की कार्य – पद्धति को सुधारना तथा मजबूत करने की चुनौती है ताकि लोगों के नियंत्रण में वृद्धि हो सके ।
भारतीय लोकतंत्र प्रतिनिध्यिात्मक लोकतंत्र है । इसमें शासन का संचालन जनप्रतिनिधियों के द्वारा किया जाता है । भारतीय लोकतंत्र के तीन अंग हैं — कार्यपालिका , विधायिका तथा न्यायपालिका । कार्यपालिका , विधायिका के प्रति उत्तरदायी है और विधायिका न्यायपालिका के प्रति । लोकतंत्र की सफलता में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका अहम् है । भारतीय लोकतंत्र में महंगाई , बेरोजगारी , आर्थिक मंदी , ग्लोबल वार्मिंग , जलवायु परिवर्तन , विदेश – नीति , आंतरिक सुरक्षा , रक्षा तैयारियाँ आदि कई मुद्दे हैं । देश की एकता एवं अखंडता को खतरा केवल आतंकवादी गतिविधियों , पूर्वोत्तर के अलगाववादी या नक्सली गतिविधियों एवं अवैध शरणार्थियों से नहीं बल्कि बढ़ते आर्थिक अपराधों से भी है । विदेशी मुद्रा का अवैध आगमन , विदेशी बैंकों में भारतीयों द्वारा जमा की गई बड़ी धनराशि उच्च एवं न्यायिक मदों पर व्याप्त भ्रष्टाचार , असमानता और असंतुलन का समाधान भी आवश्यक है ।
केन्द्र एवं राज्यों के बीच आपसी टकराव से आतंकवाद से लड़ने और जनकल्याणकारी योजनाओं के सुचारू क्रियान्वयन में बाधा पहुँचती है । अतः लक्ष्य हासिल करने के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकारों के बीच बेहतर तालमेल होना जरूरी है । जनसंख्या पर नियंत्रण हासिल करना भी आवश्यक है । लोकसभा तथा राज्यसभा के चुनावों में भी अन्धाधुंध खर्च , उम्मीदवारों के टिकट वितरण , चुनावों की मागदर्शिता , वंश और जाति की राजनीति , गठबंधन की राजनीति भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं । स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने पर गठबंधन की सरकार बनती है तथा वैसे उम्मीदवारों को चुन लिया जाता है जो दागी या आपराधिक प्रवृत्ति के होते हैं । गठबंधन में शामिल राजनीतिक दल अपनी आकांक्षाओं और लाभों की संभावनाओं को देखते हुए ही गठबंधन करते हैं जिसकी वजह से प्रशासन पर सरकार की पकड़ ढीली रहती है । शायद वही वजह है कि लोकसभा में दिनों – दिन करोड़पतियों की संख्या बढ़ती जा रही है । राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति में भी महिलाओं की निरक्षरता दूर करने , शिक्षा में आनेवाली बाधाओं के निराकरण करने तथा उन्हें प्राभिक शिक्षा में बनाए रखने को प्राथमिकता दी गई है । अत : अन्य क्षेत्रों के साथ – साथ लोकतंत्र में भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है । 15 वीं लोकतंत्र चुनावों के बाद महिलाओं की भागीदारी 10 % से अधिक हो गई है । लेकिन आज भी महिलाओं की आजादी नाममात्र की है । गाँव की पंचायतों या नगर परिषद में निर्वाचित महिला मुखिया के स्थान पर उसका पति / पुत्र अपने प्रभाव का इस्तेमाल करता है । भारत में अन्य राज्य की तरह बिहार में भी क्षेत्रीय एवं स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार जातिवाद , परिवारवाद जैसी बुराइयाँ मौजूद हैं । हाल में ही यह परंपरा बनी कि जिस जनप्रतिनिधि के निधन या इस्तीफे के कारण कोई सीट खाली हुई हो , उसके ही किसी परिजन को चुनाव का टिकट दे दिया जाए तो भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी है ।
सामान्यतः जो नेता अपने लिए जातीय बोट बैंक का किला बना लेते हैं वो सत्ता में आने . के बाद आम लोगों के विकास में रुचि नहीं रखते हैं । ऐसे नेता कुछ जातीय समूहों व व्यक्ति के लिए ही सरकारी स्तर से सामूहिक व व्यक्तिगत लाभ पहुंचाने की कोशिश करते हैं ।
इस शैली से राजनीतिक भ्रष्टाचार व अपराध , अफसरशाही , लूट तंत्र , आर्थिक पिछडापन शिक्षा का अभाव , प्राकृतिक आपदा , नारियों की खराब स्थिति , पंचायतों एवं प्रखंडों में फैल . भ्रष्टाचार आदि को बढ़ावा मिलता है ।
प्रत्येक चुनौतियों के साथ सुधार की संभावनाएँ जुड़ी हुई हैं । सभी देशों की चुनौतियाँ एक – सी नहीं होती । अतः समाधान भी एक – सा नहीं होता है । हम कानून बनाकर राजनीतिक सुधारों की पहल कर सकते हैं लेकिन सावधानी से बनाए गए कानून गलत आचरणों से हतोत्साहित और अच्छे काम – काज से प्रोत्साहित होते हैं । अत : केवल संवैधानिक बदलावों को ला देने भर से काम नहीं चलता । राजनीतिक सुधारों का काम भी मुख्यत : राजनीतिक कार्यकर्ता दल आंदोलन और राजनीतिक रूप से सचेत नागरिकों के द्वारा ही हो सकता है ।
कई बार कानूनी बदलाव के परिणाम सोच के विपरीत निकलते हैं । राजनीतिक कार्यक्रमा को अच्छे काम के लिए बढ़ावा देने पर कानूनों के सफल होने की संभावना ज्यादा होती है । अत : लोकतांत्रिक सुधारों के प्रस्ताव में लोकतांत्रिक आंदोलन , नागरिक संगठन और मीडिया पर भरोसा करने वाले उपायों की सफल होने की संभावना ज्यादा होती है ।




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