सत्तर के दशक के पहले भारत की राजनीति सवर्ण सुविधापरस्त हित समूहों के हाथों में थी। अर्थात् 1967 तक भारतीय राजनीति में सवर्ण जातियों का वर्चस्व रहना। सत्तर से नब्बे तक के दशक के बीच सवर्ण और मध्यम पिछड़े के उपरान्त पिछड़ी जातियों का वर्चस्व तथा तथा दलितों की जागृति की अवधारणाएँ राजनीतिक गलियारों में उपस्थित दर्ज कराती रहीं और नीतियों को प्रभावित करती रहीं। भारतीय राजनीति के इस महामंथन में पिछड़े और दलितों का संघर्ष प्रभावी रहा। आधुनिक दशक के वर्षों में राजनीति का पलड़ा दलितों और महादलितों (बिहार के संदर्भ में) के पक्ष में झकता दिखाई दे रहा है। सरकार की नीतियों के सभी परिदृश्यों में दलित न्याय की पहचान सबके केन्द्र-बिन्दु का विषय बन गया है।
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