1.‘हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं लेती’। कैसे?

प्रत्येक समाज में सामाजिक विभिन्नता पायी जाती है। समाज में विभिन्न धर्म, जाति, भाषा, समुदाय, लिंग इत्यादि के लोग रहते हैं जो सामाजिक विभिन्नता का सूचक है। यह आवश्यक नहीं है कि ये राजनीतिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का आधार हो, क्योंकि भिन्न समुदाय के विचार भिन्न हो सकते हैं, लेकिन हित समान होगा। उदाहरण के लिए मुम्बई में मराठियों की हिंसा का शिकार व्यक्तियसों की जातियाँ भिन्न थीं, धर्म भिन्न थे और लिंग भी भिन्न हो सकता है, परन्तु उनका क्षेत्र एक ही था। वे सभी एक ही क्षेत्र विशेष के उत्तर भारतीय थे। उनका हित समान था। वे सभी अपने व्यवसाय और पेशा में संलग्न थे। उपर्युक्त कथनों के अध्ययन करने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जायेगा कि हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं ले पाती है।

2.सामाजिक अन्तर कब और कैसे सामाजिक विभाजनों का रूप ले लेते हैं?

सामाजिक अन्तर एवं सामाजिक विभाजन में बहुत बड़ा अन्तर पाया जाता है। सामाजिक विभाजन तब होता है जब कुछ सामाजिक अन्तर दूसरी अनेक विभिन्नताओं से ऊपर और बड़े हो जाते हैं। सवर्णों और दलितों का अन्तर एक सामाजिक विभाजन है, क्योंकि दलित सम्पूर्ण देश में आमतौर पर गरीब, वंचित एवं बेघर हैं और भेदभाव के शिकार हैं जबकि सवर्ण आमतौर पर सम्पन्न एवं सुविधायुक्त हैं। अर्थात् दलितों को महसूस होने लगता है कि वे दूसरे समुदाय के हैं। अतः हम कह सकते हैं कि जब एक तरह का सामाजिक अन्तर अन्य अन्तरों से ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है और लोगों को यह महसूस होने लगता है कि वे दूसरे समुदाय के हैं तो इससे सामाजिक विभाजन की स्थिति पैदा होती है। जैसे- अमेरिका में श्वेत और अश्वेत का अन्तर सामाजिक विभाजन है। वास्तव में उपर्युक्त कथनों के अध्ययन के बाद यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक अन्तर उस समय सामाजिक विभाजन बन जाता है जब अन्य अन्तरों से ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है।

3.‘सामाजिक विभाजनों की राजनीति के परिणामस्वरूप ही लोकतंत्र के व्यवहार में परिवर्तन होता है। भारतीय लोकतंत्र के संदर्भ में इसे स्पष्ट करें।

सामाजिक विभाजन दुनिया के अधिकतर देशों में किसी-न-किसी रूप में मौजूद है और यह विभाजन राजनीतिक रूप अख्तियार करती ही है। लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के लिए सामाजिक विभाजनों की बात करना और विभिन्न समूहों से अलग-अलग वायदे करना स्वाभाविक बात है। हमारे देश भारत में लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था पायी जाती है। जनता अपने प्रतिनिधियों को मतदान के माध्यम से चुनकर देश की संसद या राज्य की विधानसभाओं में भेजती है।भारतीय लोकतंत्र में सामाजिक विभाजन का असर देश की राजनीति पर बहुत हद तक पड़ता है। साथ ही सरकार की नीतियाँ भी प्रभावित होती हैं। अगर भारत में पिछड़ों एवं दलितों के प्रति न्याय की मांग को सरकार शुरू से खारिज करती रहती है तो आज भारत विखंडन के कगार पर होता। लोकतंत्र में सामाजिक विभाजन की राजनीतिक अभिव्यक्ति एक सामान्य बात है और यह एक स्वस्थ राजनीतिक का लक्षण भी है। राजनीति में विभिन्न तरह के सामाजिक विभाजन की अभिव्यक्ति ऐसे विभाजनों की बीच संतुलन पैदा करने का भी काम रहती है। परिणामतः कोई भी सामाजिक विभाजन एक हद से ज्यादा उग्र नहीं हो पाता और यह प्रवृत्ति लोकतंत्र को मजबूत करने में सहायक भी होता है। लोग शांतिपूर्ण और संवैधानिक तरीक से अपनी मांगों को उठाते हैं और चुनावों के माध्यम से उनके लिए दबाव बनाते हैं। उनका समाधान पाने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक विभाजन की राजनीति के फलस्वरूप भारतीय लोकतंत्र के व्यवहार में परिवर्तन होता है।

4.सत्तर के दशक से आधुनिक दशक के बीच भारतीय लोकतंत्र का सफर सामाजिक न्याय के संदर्भ में का संक्षिप्त वर्णन करें।

सत्तर के दशक के पहले भारत की राजनीति सवर्ण सुविधापरस्त हित समूहों के हाथों में थी। अर्थात् 1967 तक भारतीय राजनीति में सवर्ण जातियों का वर्चस्व रहना। सत्तर से नब्बे तक के दशक के बीच सवर्ण और मध्यम पिछड़े के उपरान्त पिछड़ी जातियों का वर्चस्व तथा तथा दलितों की जागृति की अवधारणाएँ राजनीतिक गलियारों में उपस्थित दर्ज कराती रहीं और नीतियों को प्रभावित करती रहीं। भारतीय राजनीति के इस महामंथन में पिछड़े और दलितों का संघर्ष प्रभावी रहा। आधुनिक दशक के वर्षों में राजनीति का पलड़ा दलितों और महादलितों (बिहार के संदर्भ में) के पक्ष में झकता दिखाई दे रहा है। सरकार की नीतियों के सभी परिदृश्यों में दलित न्याय की पहचान सबके केन्द्र-बिन्दु का विषय बन गया है।

5.सामाजिक विभाजनों की राजनीति का परिणाम किन-किन चीजों पर निर्भर करता है?

सामाजिक विभाजन की राजनीति तीन तत्वों पर निर्भर करती है जो निम्नलिखित हैं

1. लोग अपनी पहचान स्व. अस्तित्व तक ही सीमित रखना चाहते हैं, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य में राष्ट्रीय चेतना के अलावा उप-राष्ट्रीय या स्थानीय चेतना भी होती है। कोई एक घटना बाकी चेतनाओं की कीमत पर उग्र होने लगती है तो समाज में असंतुलन पैदा हो जाता है। भारत के संदर्भ में कहा जा सकता है कि जबतक बंगाल बंगालियों का, तमिलनाडु तमिलों का, महाराष्ट्र मराठियों का, आसाम असमियों का, गुजरात गुजरातियों की भावना का दमन नहीं होगा तबतक भारत की अखण्डता, एकता तथा सामंजस्य खतरा में रहेगा। अतएव उचित यही है कि पहचान के लिए सभी चेतनाएँ अपनी-अपनी मर्यादा में रहें और एक दूसरे की सीमा में दखल न दें. सरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि अगर लोग अपने बहु-स्तरीय पहचान को राष्ट्रीय पहचान का हिस्सा मानते हैं तो कोई समस्या नहीं हो सकती। उदाहरण स्वरूप-बेल्जियम के अधिकतर लोग खुद को बेल्जियाई (Belgian) ही मानते हैं, भले ही वे डच और जर्मन बोलते हैं। हमारे देश में भी ज्यादातर लोग अपनी पहचान को लेकर ऐसा ही नजरिया रखते हैं। भारत विभिन्नताओं का देश है, फिर भी सभी नागरिक सर्वप्रथम अपने को भारतीय मानते हैं। तभी तो हमारा देश अखण्डता और एकता का प्रतीक है।

2. किसी समुदाय या क्षेत्र विशेष की मांगों को राजनीतिक दल कैसे उठा रहे हैं। संविधान ” के दायरे में आने वाली और दूसरे समुदायों को नुकसान न पहुँचाने वाली माँगों को मान लेना आसान ‘ है। सत्तर के दशक के पूर्व के राजनीतिक स्वरूप तथा अस्सी एवं नब्बे के दशक में राजनीति परिदृश्य में बदलाव हुआ और भारतीय समाज में सामंजस्य अभी तक बरकरार है। इसके विपरीत युगोस्लाविया में विभिन्न समुदाय के नेताओं ने अपने जातीय समूहों की तरफ से ऐसी माँगें रखीं कि जिन्हें एक देश की सीमा के अन्दर पूरा करना संभव न था। इसी के परिणामस्वरूप युगोस्लाविया कई टुकड़ों में बँट गया।

3. सामाजिक विभाजन के राजनीति का परिणाम सरकार के खर्च पर भी निर्भर करता है। यह भी महत्वपूर्ण है कि सरकार इन मांगों पर क्या प्रतिक्रियाएं व्यक्त करती हैं। अगर भारत में पिछड़ों एवं दलितों के प्रति न्याय की माँग को सरकार शुरू से ही खारिज रहती तो आज भारत बिखराव के कगार पर होता। लेकिन सरकार ने इनके सामाजिक न्याय को चिह्न मानते हुए सत्ता में साझेदार बनाया और उनको देश की मुख्य धारा में जोड़ने का ईमानदारी से प्रयास किया। फलतः छोटे संघर्ष के बावजूद भी भारतीय समाज में समरसत्ता और सामंजस्य स्थापित है। पुनः बेल्जियम में भी सभी समुदायों के हितों को सामुदायिक सरकार में उचित प्रतिनिधित्व दिया गया। परन्तु . श्रीलंका में राष्ट्रीय एकता के नाम पर तमिलों के न्यायपूर्ण माँगों को दबाया जा रहा है। ताकत के दम पर एकता बनाये रखने की कोशिश अकसर विभाजन की ओर ले जाती है।

6.सामाजिक विभाजनों को संभालने के संदर्भ में इनमें से कौन-सा बयान लोकतांत्रिक व्यवस्था पर लागू नहीं होता?

(क) लोकतंत्र राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के चलते सामाजिक विभाजनों की छाया (reflection) राजनीति पर भी पड़ता है।
(ख) लोकतंत्र में विभिन्न समुदायों के लिए शांतिपूर्ण ढंग से अपनी शिकायतें जाहिर करना संभव है।
(ग) लोकतंत्र सामाजिक विभाजनों को हल (accomodate) करने का सबसे अच्छा तरीका है।
(घ) लोकतंत्र सामाजिक विभाजनों के आधार पर (on the basis of social division) समाज विखण्डन (disintegration) की ओर ले जाता है।
उत्तर-(क) लोकतंत्र राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के चलते सामाजिक विभाजनों की छाया (reflection) राजनीति पर भी पड़ता है।

7.निम्नलिखित व्यक्तियों में कौन लोकतंत्र में रंगभेद के विरोधी नहीं थे?

(क) किग मार्टिन लूथर
(ख) महात्मा गांधी
(ग) ओलंपिक धावक टोमी स्मिथ एवं जॉन कॉलेंस
(घ) जेड गुडी
उत्तर-(ग) ओलंपिक धावक टोमी स्मिथ एवं जॉन कॉलेंस

8.निम्नलिखित का मिलान करें क पाकिस्तान अ धर्मनिरपेक्ष ख हिन्दुस्तान ब इस्लाम ग इंग्लैंड स प्रोस्टेंट

(क) (ब), (ख) (अ), (ग) (स)।

9.भावी समाज में लोकतंत्र की जिम्मेवारी और उद्देश्य पर एक अक्षिप्त टिप्पणी लिखें।

वर्तमान में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था संसार के अधिकतर देश अपना रहे हैं, क्योंकि लोकतंत्र में लोगों के कल्याण की बातों को प्रमुखता दी जाती है आज लोकतंत्र अपनी जड़ें जमा .. चुका है और यह धीरे-धीरे परिपक्वता की ओर अग्रसर है।

लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था एक ऐसी शासन-व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत लोग अपने प्रतिनिधियों को चुनकर संसद या विधानसभा में भेजते हैं। यह लोगों के कल्याण, सामाजिक समानता, आर्थिक समानता तथा धार्मिक समानता इत्यादि का पक्षधर है। इसी शासनतंत्र के अन्तर्गत लोक-कल्याणकारी राज्य बनाया जा सकता है। इस शासन-व्यवस्था में जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है और वे प्रतिनिधि जनता की भलाई के लिए कार्य करते हैं।वर्तमान समय में लोकतंत्र का क्रमिक विकास इस बात का सूचक है कि यह शासन-व्यवस्था औरों से अच्छी है लोकतंत्र एक ऐसा आधार प्रस्तुत करती है जिसमें लोगों के कल्याण के साथ-साथ समाज का विकास भी संभव है। यह भावी समय के लिए एक ऐसा आधार प्रस्तुत करती है जिसमें लोगों के कल्याण की भावना छुपी है। लोकतंत्र का दीर्घकालीन उद्देश्य है-एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना जिसमें आम लोग का विकास, आर्थिक समानता, धार्मिक. समानता एवं सामाजिक समानता निहित होती है। इस प्रकार लोकतंत्र भावी समाज के लिए जिम्मेवारीपूर्ण कार्य करता है।

10.भारत में किस तरह जातिगत असमानताएँ जारी हैं ?

भारत में भिन्न जाति के लोग रहते हैं, चाहे वे किसी धर्म से संबंध रखते हों। यहाँ जातिगत विशेषताएँ पायी जाती हैं, क्योंकि भारत विविधताओं का देश है।
दुनिया भर के सभी समाज में सामाजिक असमानताएँ और श्रम विभाजन पर आधारित समुदाय विद्यमान है। भारत इससे अछूता नहीं है। भारत की तरह दूसरे देशों में भी पेशा का आधार वंशानुत है। पेशा एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में स्वयं ही चला आता है। पेशे पर आधारित सामुदायिक व्यवस्था ही जाति कहलाती है। यह व्यवस्था जब स्थायी हो जाती है तो श्रम विभाजन का अतिवादी रूप कहलाता है जिसे हम जाति के नाम से पुकारने लगते हैं। यह एक खास अर्थ में समाज में दूसरे समुदाय से भिन्न हो जाता है। इस प्रकार के वंशानुगत पेशा पर आधारित समुदाय जिसे हम जाति कहते हैं, की स्वीकृति ति-रिवाज से भी हो जाती है। इनकी पहचान एक अलग समुदाय के रूप में होती है और इस समुदा. के सभी व्यक्तियों की एक या मिलती-जुलती पेशा होती है। इनके बेटे-बेटियों को शादा-आपस के समुदाय में ही होती है और खान-पान भी समान समुदाय में ही होता है। अन्य समुदाय में इनके संतानों की शादी न तो हो सकती है, और न ही करने की कोशिश करते हैं। महत्वपूर्ण परिवारिक आयोजन और सामुदायिक आयोजन में अपने समुदाय के साथ एक पांत में बैठकर भोजन करते हैं। कहीं-कहीं तो ऐसा देखा गया है कि अगर एक समुदाय के बेटा या बेटी दूसरे समुदाय के बेटा या बेटी से शादी कर लेते हैं तो उसे. पांत से काट दिया जाता है। अपने समुदाय से हटकर दूसरे समुदाय में वैवाहिक संबंध बनाने वाले परिवार को समुदाय से निष्कासित भी कर दिया जाता है।

11.क्यों सिर्फ जाति के आधार पर भारत में चुनावी नतीजे तय नहीं हो सकते? इसके _ : दो कारण बतावें। .

(i) किसी भी निर्वाचन क्षेत्र का गठन इस प्रकार नहीं किया गया है कि उसमें मात्र एक जाति के मतदाता रहें। ऐसा हो सकता है कि एक जाति के मतदाता की संख्या अधिक हो सकती है, परन्तु दूसरे जाति के मतदाता भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं। अतएव हर पार्टी एक या एक से अधिक जाति के लोगों का भरोसा करना चाहता है।
(ii) अगर जातीय भावना स्थायी और अटूट होती तो जातीय गोलबंदी पर सत्ता में आनेवाली पार्टी की कभी हार नहीं होती है। यह माना जा सकता है कि क्षेत्रीय पार्टियाँ जातीय गुटों से संबंध बनाकर.सत्ता में आ जाये, परन्तु अखिल भारतीय चेहरा पाने के लिए जाति विहीन, साम्प्रदायिकता के परे विचार रखना आवश्यक होगा।

12.विभिन्न तरह की साम्प्रदायिक राजनीति का ब्योरा दें और सबके साथ एक-एक उदाहरण दें।

जब हम यह कहना आरंभ करते हैं कि धर्म ही समुदाय का निर्माण करता है तो साम्प्रदायिक राजनीति का जन्म होता है और इस अवधारणा पर आधारित सोच ही साम्प्रदायिकता कहलाती है। हम प्रत्येक दिन साम्प्रदायिकता की अभिव्यक्ति देखते हैं, महसूस करते हैं, यथा धार्मिक पूर्वाग्रह, परम्परागत धार्मिक अवधारणायें एवं एक धर्म को दूसरे धर्म से श्रेष्ठ मानने की मान्यताएँ।साम्प्रदायिकता की सोच प्रायः अपने धार्मिक समुदाय की प्रमुख राजनीति में बरकरार रखना चाहती है। जो लोग बहुसंख्यक समुदाय के होते हैं उनकी यह कोशिश बहुसंख्यकवाद का रूप ले लेती है, उदाहरणार्थ श्रीलंका में सिंहलियों का बहुसंख्यकवाद। यहाँ लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार ने भी सिंहली समुदाय की प्रभुता कायम करने के लिए अपने बहुसंख्यकपरस्ती के तहत . कई कदम उठाये। यथा–1956 में सिंहली को एकमात्र राज्यभाषा के रूप में घोषित करना, विश्वविद्यालय और सरकारी नौकरियों में सिंहलियों को प्राथमिकता देना, बौद्ध धर्म के संरक्षण हेतु कई कदम उठाना आदि। साम्प्रदायिकता के आधार पर राजनीति गोलबंदी साम्प्रदायिकता का दूसरा रूप है। इस हेतु पवित्र प्रतीकों; धर्मगुरुओं और भावनात्मक अपील आदि का सहारा लिया जाता है। निर्वाचन के वक्त हम अक्सर ऐसा देखते हैं। किसी खास धर्म के अनुयायियों से किसी पार्टी विशेष के पक्ष में मतदान करने की अपील करायी जाती है और अन्त में साम्प्रदायिकता का भयावह रूप तब हम देखते हैं, जब सम्प्रदाय के आधार पर हिंसा, दंगा और नरसंहार होता है। : विभाजन के समय हमने इस त्रासदी को झेला है। आजादी के बाद भी कई जगहों पर बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक हिंसा हुई है। उदाहरण-नोआखली में भयावह साम्प्रदायिक दंगे हुए।

13.जीवन के विभिन्न पहलुओं का जिक्र कर जिसमें भारत में स्त्रियों के साथ भेदभाव है या वे कमजोर स्थिति में हैं ?

भारत एक विकासशील देश है। यहाँ स्त्रियों की स्थिति उतनी बेहतर नहीं है जितना एक विकसित देश में होती है। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले स्त्रियों की स्थिति बहुत ही विकट थी और आजादी के बाद स्त्रियों की स्थिति में बहुत थोड़ा बदलाव आया लेकिन वह काफी नहीं था। अगर वर्तमान परिदृश्य में देखा जाय तो भारत में स्त्रियों की स्थिति में सुधार हुआ है, परन्तु उनके सुधार के लिए बहुत कुछ किया जाना शेष है।

भारत में समय-समय पर महिलाओं ने अपनी स्थिति को सुधारने के लिए या जागृति लाने के लिए समय-समय पर मान्दोलन किया। पुरुषों के बराबर दर्जा पाने के लिए गोलबंद होना आरंभ किया। सार्वजनिक बोवन के विभिन्न क्षेत्र पुरुष के कब्जे में है। यद्यपि मनुष्य जाति की आबादी में महिलाओं का हिस्सा आया है। आज महिलाएं वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबंधक, कॉलेज और विश्वविद्यालय शिक्षक इत्यादि पेशे में दिखाई पड़ती हैं, परन्तु हमारे देश में महिलाओं की तस्वीर अभी भी उतनी संतोषजनक नहीं है, अभी भी महिलाओं के साथ कई तरह के भेदभाव होते हैं। इस बात का संकेत निम्नलिखित तथ्यों से हमें प्राप्त होता है

  • महिलाओं में साक्षरता की दर अब भी मात्र 54% है जबकि पुरुष 76%। यद्यपि स्कूली शिक्षा में कई जगह लड़कियाँ अव्वल रही हैं, फिर भी उच्च शिक्षा प्राप्त करनेवाली लड़कियों का प्रतिशत बहुत ही कम है। इस संदर्भ के लिए माता-पिता के नजरिये में भी फर्क है। माता-पिता की मानसिकता बेटों पर अधिक खर्च करने की होती है। यही कारण है कि उच्च शिक्षा में लड़कियों की संख्या सीमित है।
  • शिक्षा में लड़कियों के इसी पिछड़ेपन के कारण अब भी ऊँची तनख्वाह वाली और ऊँचे पदों पर पहुँचनेवाली महिलाओं की संख्या बहुत ही कम है।
  • यद्यपि एक सर्वेक्षण के अनुसार एक औरत औसतन रोजना साढ़े सात घंटे से ज्यादा काम करती है, जबकि एक पुरुष औसतन रोज छ: घंटे ही काम करता है। फिर भी पुरुषों द्वारा किया गया काम ही ज्यादा दिखाई पड़ता है क्योंकि उससे आमदनी होती है। हालांकि औरतें भी ढेर सारे ऐसे काम करती हैं जिनसे प्रत्यक्ष रूप से आमदनी होती है। लेकिन इनका ज्यादातर काम घर की चहारदीवारी के अन्दर होती है। इसके लिए उन्हें पैसे नहीं मिलते। इसलिए औरतों का काम दिखलाई नहीं देता।
  • लैंगिक पूर्वाग्रह का काला पक्ष बड़ा दुखदायी है, जब भारत के अनेक हिस्से में माँ-बाप को सिर्प लड़के की चाह होती है। लड़की जन्म लेने से पहले हत्या कर देने की प्रवृति इसी मानसिकता का परिणाम है।

उपर्युक्त तथ्यों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि भारत में स्त्रियों की स्थिति कमजोर है, उनके साथ भेदभाव किया जाता है।

14.भारत की विधायिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की स्थिति क्या है ?

भारत में महिला आन्दोलन की मुख्य मांगों में सत्ता में भागीदारी की मांग सर्वोपरि रही। औरतों ने यह सोचना प्रारंभ कर दिया कि जबतक औरतों का सत्ता पर नियंत्रण नहीं होगा, तबतक . इस समस्या का निपटारा नहीं होगा। परिणामस्वरूप राजनीतिक गलियचारों के इस बात की बहस … शुरू हो गयी कि इस लक्ष्य को प्राप्त करने का सबसे बेहतर तरीका यह होगा कि चुने हुए प्रतिनिधियों की हिस्सेदारी बढ़ायी जाये। यद्यपि भारत के लोकसभा में महिला प्रतिनिधियों की संख्या 59 हो गयी है, फिर भी यह 11 प्रतिशत के नीचे है। पिछले लोकसभा चुनाव में 40% महिलाओं की पारिवारिक पृष्ठभूमि आपराधिक थी, परन्तु इस बार 15वीं लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने अपराधियों को नकार दिया। 90% महिला सांसद स्नातक हैं। महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ना लोकतंत्र के लिए शुभ है। अतः भारत की विधायिकाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व पुरुषों की तुलना में बहुत कम है।

15.किन्हीं दो प्रावधानों का जिक्र करें जो भारत को धर्मनिरपेक्ष देश बनाते हैं

हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना के लिए अनेक प्रावधान किये गये हैं जिनमें दो इस प्रकार हैं

  • हमारे देश में किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। . श्रीलंका में बौद्ध धर्म, पाकिस्तान में इस्लाम और इंगलैण्ड में ईसाई धर्म को जो दर्जा दिया गया ‘ है, उसके विपरीत भारत का संविधान किसी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता।
  • हमारे संविधान के अनुसार धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव असंवैधानिक घोषित है।

16.भारत में यहाँ औरतों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है-

(घ) पंचायती राज्य संस्थाएँ

17.साम्प्रदायिक राजनीतिक के अर्थ संबंधी निम्न कथनों पर गौर करें। साम्प्रदायिक राजनीति किस पर आधारित है?

(क) एक धर्म दूसरे धर्म से श्रेष्ठ है।
(ख) विभिन्न धर्मों के लोग समान नागरिक के रूप में खुशी-खुशी साथ रहते हैं।
(ग) एक धर्म के अनुयायी एक समुदाय बनाते हैं।
(घ) एक धार्मिक समूह का प्रभुत्व बाकी सभी धर्मों पर कायम रहने में शासन की शक्ति का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।
उत्तर-(घ) एक धार्मिक समूह का प्रभुत्व बाकी सभी धर्मों पर कायम रहने में शासन की शक्ति का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।

18.भारतीय संविधान के बारे में इनमें से कौन-सा कथन सही है ?

(क) यह धर्म के आधार पर भेदभाव की मनाही करता है।
(ख) यह एक धर्म को राजकीय धर्म बनाता है।
(ग) सभी लोगों को कोई भी धर्म मानने की आजादी देता है।
(घ) किसी धार्मिक समुदाय में सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार देता है।
उत्तर-(क) यह धर्म के आधार पर भेदभाव की मनाही करता है।

19.……….पर आधारित विभाजन सिर्फ भारत में है।

जाति, धर्म और लिंगा
    Promoted Topics
    PHP Force Source Code