What is Wrong with Indian Film

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One of the most significant phenomena of our time has been the development of the cinema from a-turn-of the-century mechanical toy into the century’s most potent and versatile art form.

हमारे समय का सबसे महत्वपूर्ण चीज सिनेमा का विकास है जो एक खिलौने से बढ़कर आज एक मजबूत और अलग पहचान बना चुका है।

Today, the cinema commands the respect accorded to any other form of creative expression. It combines in various measures the functions of poetry, music, painting, drama, architecture and a host of other arts, major and minor. It also combines the cold logic of science.

आज सिनेमा दूसरे किसी कला से कम आदरणीय नहीं है। ये कविता, संगीत, चित्रकला, नाटक और कई बड़े और छोटे कला के रूप को । जोड़ता है। ये विज्ञान को भी जोड़ता है।

India took up film production surprisingly early. The first short film was produced in 1907 and the first feature in 1913. By the twenties it had reached the status of big business.

अजीब बात है पर भारत में फिल्‍म उत्पादन जल्‍दी शुरू हुआ। पहला शैट 1907 में और पहली फिल्‍म 1913 में बनाया गया। बीस के दशक तक ये एक बड़े व्‍यापार का रूप ले चूका था।

It is easy to tell the world that film production in India is quantitatively second only to Hollywood; for that is a statistical fact. But can the same be said of its quality? Why are our films not shown abroad? Is it solely because India offers a potential market for her own products? Or, are we just plain ashamed of our films?

ये कहना आसान है कि भारत में फिल्म व्यापार हॉलीवुड से दूसरे स्थान पर है। क्योंकि ये एक डाटा से सत्य है। लेकिन क्या यही इसके गुणों के बारे में कहा जा सकता है ? हमारे फिल्म विदेशों में क्यों नहीं दिखाए जाते हैं ? सिर्फ इसलिए क्योंकि हम अपने ही ग्राहकों के लिए उत्पादन करते हैं। या हमें शर्म है अपने फिल्मों पर।

To anyone familiar with the relative standards of the best foreign and Indian films, the answers must come easily. Let us face the truth. There has yet been no Indian film, which could be acclaimed on all counts. Where other countries have achieved, we have only attempted and that too not always with honesty.

जो भी भारतीय और विदेशी फिल्मों को जानते हैं उनके लिए ये जवाब ढूढ़ना आसान है। सत्य ये बात करते हैं। हमने अबतक ऐसा कोई – फिल्म नहीं बनाया जो सर्वगुण सम्पन्न हो जो दूसरे देशों ने प्राप्त कर लिया है, हम उसे कोशिश ही कर रहे हैं वो भी ईमानदारी से नहीं।

No doubt this lack of maturity can be attributed to several factors. The producers will tell you about that mysterious entity ‘the mass’, which goes in for this sort of thing’, the technicians will blame the tools and the director will have much to say about the wonderful things he had in mind but could not achieve because of the conditions’.

निसंदेह ये कमी बहुत तत्वों पर आधारित है। प्रायोजक जवाब देते हैं कि ‘हमें सब के बारे में सोचना पड़ता है।’ टेक्नीशीयन औजार पर । आरोप लगाते हैं, निर्देशक के मन में बहुत कुछ रहता है पर वो परस्थितियों से बन्धे रहते हैं।

In India it would seem that the fundamental concept of a coherent dramatic pattern existing in time was generally misunderstood.

भारत में ऐसा लगता है कि सिनेमा बनाने का व्यवस्थित तरीका जो पहले हुआ करता था अब गलत तरीके से उसे समझा जाता है।

Often by a queer process of reasoning, movement was equated with action and action with melodrama. The analogy with music failed in our case because Indian music is largely improvisational.

अकसरहा तीय तरीकों से चलना-फिरना को कार्य से जोड़ा गया और कार्य को भावनात्मक नाटक से। हमारा संगीत इसलिए असफल रहा क्योंकि हम उसे नाटक के साथ जोड़ देते हैं।

Almost every passing phase of the American cinema has had its repercussion on the Indian films. Stories have been written based on Hollywood successes and the cliches preserved with care. Even where the story has been a genuinely Indian one, the background music has revealed an irrepressible penchant for the jazz idiom.

हमेशा अमरीकी फिल्मों का असर भारत पर पड़ता है। हॉलीवुड पर आधारित कई फिल्म बने हैं और उनके तत्वों को ठीक से रखा भी गया है। कभी अगर कहानी भारतीय भी होती है तो उसके पीछे संगीत से वो असर दिखता है।

 

It should be realised that the average American film is a bad model, if only because it depicts a way of life so utterly at variance with our own. Moreover, the high technical polish, which is the hallmark of the standard Hollywood product, would be impossible to achieve under existing Indian conditions. What the Indian cinema needs today is not more gloss, but more imagination, more integrity, and a more intelligent appreciation of the limitations of the medium.

ये अहसास होना चाहिए कि औसतन अमरीकी फिल्म एक खराब उदाहरण है। क्योंकि इसकी कहानी हमसे बहुत अलग होते हैं । उच्च तकनीक जिसके लिए हॉलीवुड जाना जाता है, भारत के तत्कालीन हाल में मिलना मुश्किल है। आज भारतीय सिनेमा को सिर्फ चमक-धमक नहीं चाहिए लेकिन बेहतर कल्पना, बेहतर एकता और बुद्धि वाला सोंच जो भाषा के घेराव को रोके।।

After all we do possess the primary tools of filmmaking. The complaint of the technicians notwithstanding, mechanical devices such as the crane shot and the process shot are useful, but by no means indispensable. What our cinema needs above everything else is a style, an idiom, a sort of iconography of cinema, which would be uniquely and recognisably Indian.

आखिर हमारे पास फिल्म बनाने का प्राथमिक औजार है। तकनीकी समस्याएँ जायज है पर ऐसा नहीं है कि उसके बगैर काम नहीं चलेगा। कई जगहा पर अपनी बुद्धि से हम इसे इस्तेमाल करते भी हैं। आज हमारे सिनेमा को जरूरत है एक ऐसे माध्यम की जिससे हमारा सिनेमा पूर्णतः भारतीय रहे।

 

The majority of our films are replete with such ‘visual dissonances’. But the truly Indian film should steer clear of such inconsistencies and look for its material in the more basic aspects of Indian life, where habit and speech, dress and manners, background and foreground, blend into a harmonious whole.

हमारी ज्यादातर फिल्में अलग-अलग धुनों के संगीत से भरी हुई है। लेकिन सच्ची भारतीय फिल्मों को भारत की सच्ची जिन्दगी, सच्चा रहन-सहन, बात-चीत का तरीका को सही तरीके से मिला कर दिखाना चाहिए।

It is only in a drastic simplification of style and content that hope for the Indian cinema resides. At present, it would appear that nearly all the prevailing practices go against such a simplification.

हमें पूर्णत: साधारण होना होगा इसी से भारती फिल्म की छाप बचेगी। आज ऐसा लगता है कि सब कुछ इसके विपरीत ही है।

Starting a production without adequate planning, sometimes even without a shooting script, penchant for convolutions of plot and counter plot rather than the strong, simple unidirectional narrative: the practice of sandwiching musical numbers in the most unlyrical situations, the habit of shooting indoors in a country which is all landscape, and at a time when all other countries are turning to the documentary for inspiration – all these stand in the way of the evolution of a distinctive style.

बिना सही प्लानिंग के परियोजना शुरू करना, कभी बिना कहानी के ही आगे बढ़ना, कभी कुछ प्लोट पे प्लोट बदलना, कभी बिना निर्देशन । – के कहानी सुनाना, संगीत को जोड़ना-तोड़ना घर के अन्दर ही सारी शुटींग करना, दूसरे देश जब प्रेरणा के लिए डाक्युमेन्टरी देख रहे हैं, इस सब के कारण एक अलग पहचान नहीं बन पाता है।

There have been rare glimpses of an enlightened approach in a handful of recent films. IPTA’s ‘Dharti-ke-Lal’ is an instance of a strong simple theme put over with style. honesty and technical competence. Shankar’s ‘Kalpana’, an inimitable and highly individual experiment shows a grasp of filmic movement, and a respect for tradition.

ये विकास का झलक कुछ फिल्मों में दिखा है। आई०पी०टी०ए० का ‘धरती के लाल’ एक उदाहरण है स्टाईल, ईमानदारी और तकनीक – का। ‘शंकर की कल्पना’ एक व्यक्ति के अनुभव को दिखाती है और संस्कृति को इज्जत देती है।

 

The raw material of the cinema is life itself. It is incredible that a country which has inspired so much painting , music and poetry should fail to move the filmmakers. He has only to keep his eyes open, and his ears. Let him do so.

सिनेमा का कच्चा माल जीवन ही है। ये अमाननीय है कि जिस देश में एक से एक पेन्टर कवि और कलाकार हैं वो फिल्म बनाने वालों * को नहीं ला पा रही है। उसे बस अपना आँख और कान खुले रखना है। उसे ये करने दो।

 

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SATYAJIT RAY, born on May 2, 1921, was a wellknown film director of India. He earned international recognition for his talent in film-making and direction. Best known for his ‘Pather Panchali, ‘Aparajto’, ‘Charulata’ and ‘Shatranj Ke Khilari’, he won awards at international film festivals in Venice, Cannes and Berlin. Ray used to compose music for his own films. He was also a story writer, illustrator and book designer. Oxford University conferred on him an honorary doctorate degree, an honour which very few people have received. In the present essay, taken from his book Our Films, Their Films, he examines the nature of our films and points out their defects. He is extremely critical of the quality of our film-making, direction as well as content.

2 मई 1921 को जन्‍में सत्‍यजीत राय भारत के प्रख्‍यात फिल्‍म डायरेक्‍टर थे। फिल्‍म निर्माण और निर्देशन में अपनी प्रतिभा के लिए उन्‍होंने अन्‍तर्राष्‍ट्रीय पहचान अर्जित की। व‍ेनिश, केन्‍स और बर्लिन में अन्‍तर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म महोत्‍सवों में अपने पथेर पांचाली, अपराजिता, चारूलता और सतरंज के खिलाड़ी के लिए सर्वाधिक परिचित उन्‍होंने पुरस्‍कार प्राप्‍त किया। राय अपने फिल्‍म के लिए स्‍वयं संगीत रचते थे। वह कथालेखक, चित्रकार और पुस्‍तक रूपवार भी थे। ऑक्‍सफोर्ड विश्‍वविद्यालय ने उसे सम्‍मानार्थ डॉक्‍टर की उपाधि प्रदान की वह प्रतिष्‍ठा जो बहुत कम लोगों ने प्राप्‍त की हे। उनकी पुस्‍तक आवर फिल्‍म्‍स, देअर फिल्‍म्स के लिए वर्तमान लेख में, वह हमारे फिल्‍मों की प्रकृति की परख करते हैं और उनकी कमी निर्दिष्‍ट करते हैं। वह हमारे फिल्‍म-निर्माण, निर्देशन के अलावा विषयवस्‍तु की गुणवत्ता के प्रति अत्‍यधिक आलोचक है।