वित्तीय संस्थान मौद्रिक क्षेत्र में देश अथवा राज्य की ऐसी संस्थाओं को कहते हैं, जो लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु साख एवं मुद्रा संबंधी कार्यों का संपादन करती हैं। वित्तीय संस्थान के द्वारा कृषि, उद्योग, व्यापार जैसे आर्थिक कार्यों के लिए मौद्रिक प्रबंधन किया जाता है। ये संस्थाएँ समाज के आर्थिक विकास के लिए उनकी आवश्यकता के अनुरूप अल्पकालीन, मध्यकालीन और दीर्घकालीन साख अथवा ऋण की सुविधा प्रदान करती हैं। किसी भी आर्थिक और व्यावसायिक कार्य के संपादन के लिए रुपये की आवश्यकता होती है। किसी भी उद्यमी के पास इतने अधिक आर्थिक साधन नहीं होते कि वे अपने बलबूते पर अपने व्यवसाय को चला सकें। ऐसी परिस्थिति में वित्तीय संस्थान उनके लिए उनकी आवश्यकता एवं माँग के अनुरूप वित्तीय साधन उपलब्ध कराती है।
a) संस्थागत वित्तीय संस्थाएँ तथा
(b) गैर-संस्थागत वित्तीय संस्थाएं। संस्थागत वित्तीय संख्याओं के अन्तर्गत सहकारी बैंक, प्राथमिक सहकारी समितियाँ, भूमि विकास बैंक व्यावसायिक बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, नाबार्ड आते हैं। :गैर-संस्थागत वित्तीय संस्थाओं में महाजन, सेठ-साहुकार, किसान, रिश्तेदार आदि आते हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में ऋण के सहज स्रोत हैं।
किसानों को साख अथवा ऋण की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि अधिकांश किसान छोटे या सीमांत श्रेणी के होते हैं जिनके पास आय की कमी है तथा वे अपना बचत नहीं के बराबर कर पाते हैं। परिणामस्वरूप कृषि एवं उससे संबंधित उद्योगों में अपेक्षित निवेश नहीं कर पाते हैं। इसके लिए उन्हें वित्तीय संस्थाओं द्वारा प्राप्त साख अथवा ऋण की आवश्यकता पड़ती है।
व्यावसायिक बैंक प्रायः चार प्रकार की जमा राशि को स्वीकार करते हैं जो निम्नलिखित हैं-
- स्थायी जमा स्थायी जमा खाते में रुपया एक निश्चित अवधि जैसे एक वर्ष या इससे अधिक के लिए भी जमा किया जाता है। इस निश्चित अवधि के अन्दर साधारणतया यह रकम : नहीं निकाली जा सकती है। इस प्रकार के जमा को सावधि जमा भी कहा जाता है। इस अवधि के अन्दर जमा की गयी राशि पर बैंक आकर्षक ब्याज भी देते हैं।
- चालू-चालू जमा खाते में रुपया जमा करने वाला अपनी इच्छानुसारं रुपया जमा कर सकता है अथवा निकाल सकता है। इसमें किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं रहता है। सामान्यतः इस प्रकार का जमा व्यापारियों तथा बड़ी-बड़ी संस्थाओं के लिए विशेष सुविधाजनक होता है। उ माँग जमा भी कहते हैं।
- संचयी जमा-इस प्रकार के खाते में रुपया जमा करने वाला जब चाहे रु कर सकता है। किन्तु रुपया निकालने का अधिकार सीमित रहता है, वह भी एक निश्चित रकम से अधिक नहीं। इसमें चेक की सुविधा भी प्रदान की जाती है।
- आवती जमा-इस प्रकार के खाते में व्यावसायिक बैंक साधारणतया अपने ग्राहकों से तिमाह एक निश्चित रकम जमा के रूप में एक निश्चित अवधि जैसे 60 माह या 72 माह के लए ग्रहण करता है और इसके बाद एक निश्चित रकम भी देता है। इसी प्रकार का एक अन्य जमा संचयी समयावधि जमा भी होता है।
सहकारिता का अर्थ है “एक साथ मिल-जुलकर कार्य करना” लेकिन अर्थशास्त्र में : इस शब्द का प्रयोग अधिक व्यापक अर्थ में किया जाता है, “सहकारिता वह संगठन है जिसके द्वारा दो या दो से अधिक व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक मिल-जुलकर समान स्तर पर आर्थिक हितों की वृद्धि करते हैं।” इस प्रकार सहकारिता उस आर्थिक व्यवस्था को कहते हैं जिसमें मनुष्य किसी आर्थिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए मिल-जुलकर कार्य करते हैं। सहकारिता का सिद्धांत यह भी बतलाता है कि विपन्न एवं शक्तिहीन व्यक्ति एक-दूसरे के साथ मिलकर व्यापारिक सहयोग के शरा ऐसे भौतिक लाभ अथवा सुख प्राप्त कर सकें जो धनी और शक्ति-सम्पन्न व्यक्तियों को उपलब्ध हो और जिससे उनका नैतिक विकास हो। सहकारिता के द्वारा जीवन के ऐसे उच्च एवं अधिक समुन्नत स्तर की वास्तविक सिद्धि की आशा की जाती है जिसमें श्रेष्ठतम कृषि तथा समृद्ध जीवन संभव हो सके। अंततः इसका सिद्धांत “सब प्रत्येक के लिये और प्रत्येक सब के लिये है।”
स्वयं सहायता समूह वास्तव में ग्रामीण क्षेत्र में 15-20 व्यक्तियों (खासकर महिलाओं) का एक अनौपचारिक समूह होता है जो अपनी बचत तथा बैंकों से लघु ऋण लेकर अपने सदस्यों के पारिवारिक जरूरतों को पूरा करता है और विकास गतिविधियाँ चलाकर गांवों के विकास और पहिला सशक्तिकरण में योगदान करता है।
भारत में सहकारिता की शुरूआत पिछली शताब्दी के प्रारंभ में हुई। इसमें निर्धन तथा कमजोर वर्ग के लोगों के उत्थान एवं किसानों को सस्ती दर पर ऋण उपलब्ध कराने के उद्देश्य से सहकारी समितियों की स्थापना पर जोर दिया जाने लगा। इसके लिए सर्वप्रथम 1904 ई. में एक “सहकारिता साख समिति विधान” पारित हुआ जिसके अनुसार गाँव या नगर में कोई भी स व्यक्ति मिलकर सहकारी साख समिति की स्थापना कर सकते थे।
इसमें सुधार लाने तथा इसके क्षेत्र को विस्तृत रूप देने के लिए 1912 ई. में एक और अधिनियिम बनाया गया। 1919 ई. के राजनीतिक सुधारों के अनुसार सहकारिता प्रांतीय सरकारों का हस्तांतरित विषय बन गयी। अतएव इसके संचालन का भार अब राज्य सरकारों के हाथ में आ गया।
सहकारिता समितियों की वित्तीय आवश्यकता की पूर्ति सहकारी बैंक के द्वारा होती है। जो हमारे देश में तीन स्तर पर काम करते हैं। पहला स्तर प्राथमिक सहकारी समितियाँ, दूसरा स्तर केन्द्रीय सहकारी बैंक तीसरा स्तर राज्य सहकारी बैंक हैं।
सूक्ष्म वित्त योजना के द्वारा गाँव, कस्बा और जिला में गरीब परिवारों को स्वयं सहायता समूह से जोड़कर ऋण मुहैया कराया जाता है। इससे छोटे पैमाने पर साख अथवा ऋण की सुविधा प्रदान होती है।