मेजनी काबूर का योगदान मेजनी साहित्यकार, गणतांत्रिक विचारों का समर्थक और योग्य सेनापति था। मेटरनिख युग के पतन के बाद भिन्न परिस्थिति में इटली में मेजिनी का प्रादुर्भाव हुआ। उसका योगदान निम्न है-
उसने “यंग इटली” नामक संस्था का गठन किया और युवा शक्ति में विश्वास करता था तथा कहा करता था कि “यदि समाज में क्रांति लानी है तो विद्रोह का नेतृत्व युवकों के हाथों में दे दो।” “यंग इटली” का एक मात्र उद्देश्य इटली को आस्ट्रिया के प्रभाव से मुक्त कर उसका एकीकरण करना था। उसने ‘जनता जनार्दन तथा इटली’ का नारा बुलंद किया। इससे युवाओं में एकता का सूत्रपात हुआ और दो वर्षों के भीतर “यंग इटली” के सदस्यों की संख्या साठ हजार तक पहुँच गयी। उग्रराष्ट्रवादी विचारों के कारण मेजिनी को निर्वासित होकर इंगलैंड जाना पड़ा। वहाँ से अपनी रचनाओं द्वारा इटली के स्वाधीनता संग्राम को प्रेरित करता रहा। इटली के एकीकरण में उसे पैगम्बर कहा गया है।
गैरीबाल्डो का योगदान-
काबूर का योगदान
गैरीबाल्डी को इटली का तलवार कहा जाता है, उसने “लाल कुर्ती” नामक नवयुवकों का एक संगठन कायम किया। इसकी सहायता से उसने 1860 ई. में नेपल्स के राजा को पराजित किया। बाद में सिसली और पोप को अपने कब्जे में ले लिया। इसके बाद गैरीबाल्डी ने अपने सारे जीते हुए इलाकों को विक्टर इमैनुएल को सौंप दिया और विक्टर को इटली का राजा घोषित कर दिया। पिडमौंट, सार्डिनिया का नाम बदलकर इटली राज्य कर दिया गया।
1848 ई. को क्रांति के बाद यह स्पष्ट हो गया कि जर्मनी का एकीकरण क्रांतिकारियों के प्रत्यनों से नहीं होना था। उसका एकीकरण एक सैन्य शक्तिप्रधान साम्राज्य के रूप में शासकों द्वारा होना था और इस कार्य को पूरा किया बिस्मार्क ने।
जनवरी, 1830 में विलियम प्रथम प्रथा का शासक बना और उसने बिस्मार्क को चांसलर नियुक्त किया। बिस्मार्क प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण करना चाहता था, पर आस्ट्रिया उसका विरोध कर रहा था। बिस्मार्क जर्मन एकीकरण के लिए सैन्य शक्ति के महत्व को समझता था। अतः इसके लिए उसने ‘रक्त और लौह नीति’ का अवलम्बन किया। उसने अपने देश में अनिवार्य सैन्य सेवा लागू कर दी! बिस्मार्क ने अपनी नीतियों से प्रशा का सुदृढीकरण किया और इस कारण प्रशा, आस्ट्रिया से किसी मायने में कम नहीं रह गया। तब बिस्मार्क ने डेनमार्क, आस्ट्रिया और फ्रांस के साथ युद्ध कर जर्मनी का एकीकरण करने में सफलता प्राप्त की।
राष्ट्रवाद आधुनिक विश्व की राजनैतिक जागृति का प्रतिफल है। यह एक ऐसी भावना है जो किसी विशेष भौगोलिक, सांस्कृतिक या सामाजिक परिवेश में रहने वाले लोगों में एकता की वाहक बनती है। राष्ट्रवाद के उदय के कारण निम्न हैं
(i) यूरोप में पुनर्जागरण- पुनर्जागरण के कारण कला, साहित्य, विज्ञान इत्यादि पर गहरा प्रभाव पड़ा और लोगों के दृष्टि कोण में परिवर्तन हुए जिसने राष्ट्रवाद का बीजारोपण किया।
(ii) फ्रांस की राज्य क्रांति- इसने राजनीतिक को अभिजात्यवर्गीय परिवेश से बाहर कर उसे अखबारों, सड़कों और सर्वसाधारण की वस्तु बना दिया।
(iii) नेपोलियन का आक्रमण- नेपोलियन ने जर्मनी और इटली के राज्यों को भौगोलिक नाम की परिधि से बाहर कर उसको वास्तविक एवं राजनैतिक रूपरेखा प्रदान की। जिससे इटली और जर्मनी के एकीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ। दूसरी तरफ नेपोलियन की नीतियों के कारण फ्रांसीसी प्रभुता और आधिपत्य के विरुद्ध यूरोप में देशभक्तिपूर्ण विक्षोभ भी जगा।
नेपोलियन के पतन के बाद यूरोप की विजयी शक्तियाँ आस्ट्रिया की राजधानी वियना में 1814-15 में एकत्र हुई। जिनका उद्देश्य यूरोप में पुनः उसी व्यवस्था को स्थापित करना था, जिसे नेपोलियन के युद्धों.और विजयों ने अस्त-व्यस्त कर दिया था।
चार्ल्स दशम् एक निरंकुश एवं प्रतिक्रियावादी शासक था, जिसने फ्रांस में उभर रही राष्ट्रीयता तथा जनतंत्र भावनाओं को दबाने का कार्य किया। उसने अपने शासनकाल में संवैधानिक लोकतंत्र की राह में कई गतिरोध उत्पन्न किये। उसके द्वारा प्रतिक्रियावादी पोलिग्नेक को प्रधानमंत्री बनाया गया। पोलिग्नेक ने लूई 18वें द्वारा स्थापित समान नागरिक संहिता के स्थान पर शक्तिशाली अभिजात्यवर्ग की स्थापना तथा उसे विशेषाधिकारों से विभूषित करने का प्रयास किया।
उसके इस कदम को उदारवादियों ने चुनौती तथा क्रांति के विरुद्ध षड्यंत्र समझा। प्रतिनिधि सदन एवं दूसरे उदारवादियों ने पोलिग्नेक के विरुद्ध गहरा असंतोष प्रकट किया। चार्ल्स दशमा ने इस विरोध की प्रतिक्रियास्वरूप-25 जुलाई 1830 ई. को चार अध्यादेशों के विरोध में पेरिस में क्रांति की लहर दौड़ गई और फ्रांस में 28 जुलाई से गृहयुद्ध प्रारम्भ हो गया। इसे ही जुलाई 1830 की क्रांति कहते हैं। इसके साथ ही चार्ल्स दशम फ्रांस की राजगद्दी को त्याग कर इंगलैंड चला गया और इस प्रकार फ्रांस में बूर्वो वंश के शासन का अंत हो गया और आर्लेयेस वंश के लुई फिलिप को सत्ता राप्त हुई।
यूनान तुर्की साम्राज्य के अधीन था। फलतः तुर्की शासन से स्वयं को अलग करने के लए आन्दोलन चलाये जाने लगे। यूनान सारे यूरोपवासियों के लिए प्रेरणा एवं सम्मान का पर्याय था, जिसकी स्वतंत्रता के लिए समस्त यूरोप के नागरिक अपनी सरकार की तटस्थता के बावजूद भी उद्यत थे। इंगलैंड का महान कवि लार्ड बायरन यूनानियों की स्वतंत्रता के लिए यूनान में ही शहीद हो गया। इससे यूनान की स्वतंत्रता के लिए सम्पूर्ण यूरोप में सहानुभूति की लहर दौड़ने लगी। इधर रूस भी अपनी साम्राज्यवादी महत्वकांक्षा तथा धार्मिक एकता के कारण यूनान की स्वतंत्रता का पक्षधर था।
यूनान में स्थिति तब विस्फोटक बन गयी जब तुर्की शासकों द्वारा यूनानी स्वतंत्रता संग्राम में संलग्न लोगों को बुरी तरह कुचलना शुरू किया गया। 1821 ई. में अलेक्जेंडर चिप-सिलांटी के नेतृत्व में यूनान में विद्रोह शुरू हो गया। परन्तु वह मेटरनिख के दबाव में खुलकर सामने नहीं आ पा रहा था। परन्तु जब जार निकोलस आया तो उसने खुलकर यूनानियों का समर्थन किया। अप्रैल 1826 में ग्रेट ब्रिटेन और रूस में एक समझौता हुआ कि वे तुर्की-यूनान विवाद में मध्यस्थता करेंगे।
फ्रांस का राजा चार्ल्स दशम भी यूनानी स्वतंत्रता में दिलचस्पी लेने लगा। 1827 में लंदन में एक सम्मेलन हुआ जिसमें इंगलैंड, फ्रांस तथा रूस ने मिलकर तुर्की के खिलाफ तथा यूनान के समर्थन में संयुक्त कार्यवाही करने का निर्णय लिया। इस प्रकार तीनों देशों की सेना नावारिनो की खाड़ी में तुर्की के खिलाफ एकत्र हुई। युद्ध में तुर्की की सेना पराजित हुई और अंततः 1829 में एड्रियानोपल की संधि हुई। जिसके तहत तुर्की की नाममात्र की प्रभुता में यूनान को स्वायत्तता देने की बात हुई। परन्तु यूनानी राष्ट्रवादियों ने संधि की बातों को मानने से इंकार कर दिया। उधर इंगलैंड तथा फ्रांस भी यूनान पर रूस के प्रभाव की अपेक्षा इसे स्वतंत्र देश बनाना बेहतर मानते थे। फलतः 1832 में यूनान को एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया गया। बवेरिया के शासक ओटो’ को स्वतंत्र यूनान का राजा घोषित किया गया।
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