आर्थिक संकट के कारण- इसका बुनियादी कारण स्वयं इसकी अर्थव्यवस्था के स्वरूप में ही समाहित था जो निम्न है-
आर्थिक संकट के परिणाम-
सोवियत रूस ने पूर्वी यूरोप और भारत जैसे नवस्वतंत्र देशों में अपनी आर्थिक व्यवस्था को फैलाने का गंभीर प्रयास किया, जिसमें पूर्वी यूरोप तथा उ. कोरिया वियतनाम जैसे देशों में उसे पूर्ण सफलता मिली। दूसरी ओर पूँजीवादी अर्थतन्त्र का मुखिया सं. रा. अमेरिका ने विश्व के दो क्षेत्रों दक्षिण अमेरिका और मध्य तथा पश्चिमी एशिया के तेल सम्पदा सम्पन्न देशों (ईरान, ईराक, सऊदी अरब, जार्डन, यमन, सीरिया, लेबनान) में जबरन अपनी नीतियों को थोपने का काम किया। दक्षिणी अमेरिकी महादेश के देशों में तो सं. रा. अमेरिका ने अपनी खूफिया संस्था सी. आई. ए. के माध्यम से सैनिक शक्ति के इस्तेमाल की हद तक जाकर अपना प्रभाव स्थापित किया। जबकि पश्चिमी मध्य एशिया के देशों पर अपने प्रभाव को बनाने के लिए अरब बहुल आबादी वाले फिलिस्तीन क्षेत्र में एक नये यहूदी राष्ट्र इजरायल को स्थापित करवाकर, उसका सहारा लिया।
पश्चिमी यूरोपीय देशों (ब्रिटेन, फ्रांस, प. जर्मनी, बाल्टिक देश स्पेन) में भी महत्वपूर्ण आर्थिक संबंधों का विकास हुआ। 1944 में नीदरलैंड बेल्जियम और लग्जमवर्ग ने ‘बेनेलेक्स’ नामक संघ बनाया। 1948 में ब्रेसेल्स संधि हुआ जिसमें यूरोपीय आर्थिक सहयोग की प्रक्रिया कोयला एवं इस्पात के माध्यम से शुरू किया।
1957 में यूरोपीय आर्थिक समुदाय यूरोपीय इकॉनॉमिक कम्यूनिटि की स्थापना हुई। इसमें फ्रांस, प. जर्मनी, बेल्जियम, हालैण्ड, लग्जमवर्ग और इटली शामिल हुए। इन देशों ने एक साझा बाजार स्थापित किया। ग्रेट ब्रिटेन 1960 में इसका सदस्य बना। इन सभी देशों पर सं. रा. अमेरिका का प्रत्यक्ष प्रभाव प
भूमंडलीकरण राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक जीवन के विश्वव्यापी समायोजन की एक प्रक्रिया है जो विश्व के विभिन्न भागों के लोगों को भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक स्तर पर एकीकृत करने का सफल प्रयास करती है। अर्थात जीवन के सभी क्षेत्रों में लोगों के द्वारा किए जाने वाले क्रियाकलापों में विश्वस्तर पर पायी जानेवाली (एकरूपता या समानता) भूमंडलीकरण के अन्तर्गत सम्मिलित होती है। भूमंडलीकरण के कारण जीविकोपार्जन के क्षेत्र में काफी बदलाव आया है। इसकी झलक शहर, कस्बा और गाँव सभी जगहों पर दिख रही है। इसके कारण जीविकोपार्जन के गई नए क्षेत्र खुले हैं जैसे-कॉल सेंट, शॉपिंग मॉल, होटल और रेस्टोरेंट, बैंक और बीमा क्षेत्र में दी जानेवाली सुविधा, दूरसंचार और सूचना तकनीक का विकास इत्यादि। इन क्षेत्रों में कई लोगों को रोजगार मिला है और मिल रहा है जिससे अच्छी आमदनी होती है।इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आर्थिक भूमण्डलीकरण ने हमारी आवश्यकताओं के दायरे को बढ़ाया है और उसी अनुरूप उसकी पूर्ति हेतु नयी-नयी सेवाओं का उदय हो रहा है जिससे जुड़कर लाखों लोग अपनी जीविका चला रहे हैं इससे उनका जीवन स्तर भी बढ़ा है।
1920 के बाद जो भी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध विकसित हुए। उसमें आर्थिक कारकों का महत्वपूर्ण स्थान था। 1929 के आर्थिक मंदी को आधार वर्ष मानकर 1919-1945 के बीच बनने वाले आर्थिक सम्बन्धों को दो भागों में बाँटा जा सकता है।
1920 से 1929 तक का काल सामान्यतः आर्थिक समुत्थान और विकास का काल था! प्रथम विश्वयुद्ध के बाद विश्व पर से यूरोप का प्रभाव क्षीण हो गया। यद्यपि उपनिवेशों (एशिया-अफ्रीका) पर उसकी पकड़ बनी रही लेकिन इस दौर में सं. रा. अमेरिका, जापान और सोवियत रूस ये तीन देश विश्व की सर्वप्रमुख्न शक्ति के रूप में उभरे। सं. रा. अमेरिका में युद्ध के तुरंत बाद का दो वर्ष आर्थिक संकट का काल था। परंतु 1922 के बाद तकनीकी उन्नति के कारण औद्योगिक विकास हुआ। परन्तु इसका एक नकारात्मक परिणाम देखने को मिला कि देश की आर्थिक शक्ति और सता कुछ हाथों और कम्पनियों के पास केन्द्रित हो गयी।
रूस और जापान ने 1920-1929 के बीच आर्थिक क्षेत्र में काफी प्रगति की। जापान अपनी आर्थिक प्रगति को बनाए रखने के लिए साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा को आक्रामक रूप दिया जिसका शिकार चीन हुआ। इसी समय भारत एवं अन्य और निवेशिक देशों में राष्ट्रीय चेतना का प्रसार हुआ।
इस काल में नए राजनैतिक संबंधों का भी विकास हुआ। 1932 ई. में अमेरिकी राजनीति में फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट का उदय हुआ। उसने ‘न्यू डील” नामक नवीन आर्थिक नीतियों को अमेरिका में लागः उसके अन्तर्गत रेलमार्ग, सड़क, पुल स्थानीय विकास हेतु ऋण वितग्नि किया गया। औद्योगिक क्षेत्र में व्यापार और उत्पादन का नियमन, मजदूरी में वृद्धि, काम के घण्टे तथ करना, मूल्यों में वृद्धि रोकना इत्यादि सम्मिलित थे। कृषि क्षेत्र में किसानों की क्रय शक्ति तथा सामान्य आर्थिक स्थिति को युद्ध के पूर्व के स्तर तक ले जाने का प्रयास हुआ।
आर्थिक मंदी के आलोक में यूरोप की राजनैतिक स्थिति में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। एक रूस में स्थापित साम्यवादी आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था का आकर्षण सम्पूर्ण विश्व में बढ़ा क्योंकि वही एक देश था, जिसपर इस मंदी का प्रभाव बिल्कुल नहीं पड़ा इससे उसका प्रभाव बहुत बढ़ा। इटली और जर्मनी में लोकतंत्र की विफलता और अधिनायकवादी तथा तानाशाही तंत्र के उदय ने यूरोप के कई और देशों को अपने लपेटे में ले लिया जैसे-स्पेन, आस्ट्रिया, यूनान इत्यादि। यूरोप में आर्थिक मंदी के बाद उदित होने वाली राजनैतिक व्यवस्था ने अपनी नीतियों से द्वितीय महायुद्ध को अवश्यम्भावी बना दिया।
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